हर बार
यानि …
हर बार
ऐसा हुआ कि पहुँचके
निकट शिखर के मैं
फिसल गया
गगन चुम्भी इरादे
टूटे
और आत्मविश्वास
डगमगा गया
संभला ,
उठ खड़ा हुआ
हार को देह से झाड़ा
और पुनः प्रयास
का डंका बजा दिया
इतने निकट पहुच के
क्यूँ होता ऐसा
क्या धैर्य सिखाना
चाहता विधाता
या सर्वशक्तिमान वो है
इसका एहसास कराना
चाहता परमात्मा
लालसा को लालसा रहने
देना चाहता वो
कि प्रयास और करवाना
चाहता वो
जीत का खून चख के
कहीं मैं अपनी
मासूमियत का खो दूँ
क्या इस डर से
मुझे जीत का सेहरा न पहनाता वो
यदि है ऐसा तो बता दूँ तुझे ऐ खुदा
मैं तेरी माटी से ही हूँ बना
तेरे दिए वरदान को सार्थक
बनाता मैं
सद्भावना , विनम्रता का
धागा पकडे हूँ मैं
तेरी अनुभूति पल पल है
मुझे
मैं मंदिर, देवल मूरत को
न पूजता क्या इसका गुसा है तुझे
क्यूँकी मैं मन में बसाये हूँ
तुझे
तेरे प्रतिबिम्ब , तेरी लौ को
दिल में जगाये हुए हूँ मैं
परीक्षा कब तक करेगा
कब तक निकट ले जाके
गिरा देगा मुझे
कब प्यास बुझाएगा मेरी
कब मैं हूँगा शिखर पे
निकट नहीं….
कब?
वत्स
मैं तुझमे बसा हूँ
है मालूम मुझे
तेरा द्रिड संकल्प है
अर्घ्य और निष्ठां
है धूप मालूम मुझे
परन्तु
धैर्य नहीं तुझमे
ये बतला दूँ तुझे
लालसा भूख बन चुकी है
जो खा रही तुझे
बंद कर अपनी आँखें
और होने दे मुझे प्रकट
थामे रख बाँध को
चाहे स्थिति हो कितनी विकट
सांस भर विश्वास की
और मुझ में हो विलीन
होगा आखाश तेरा
सागर भी समर्पित तुझे
होगा तू शिखर पे
न होगा केवल निकट
न होगा केवल निकट
न होगा केवल निकट.
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