Monday, November 7, 2011
लौ ! Copyright ©
एक रात मोमबत्ती को देख देख
ऐसे ही मन में ख्याल आया
कैसे रौशन हो चली थी
काली, रात की घनघोर काया
परछाइयां बन रही थी
और था काला साया
पर जैसे ही चिंगारी भड़की
और दीप जलाया
एक विचार मन में अनायास ही आया
जो रौशन कर रही लौ थी
वो धधकती हुई उम्मीद का प्रमाण थी
बस छूटने वाले तीर की कमान थी
फिर उस बत्ती से मैंने दूजे का मूह सुलगाया
उसे भी उम्मीद का स्वाद चखाया
उस अनुभूति से एक और एहसास हुआ
दूजो को बांटने से बुझता नहीं दिया
बल्कि रौशन हो उठती है कायनात
एक की रौशनी से दूजा भी जिया
ज्ञान की लौ बांटने से है बढ़ती
फिर वो आग बनके हर कोने में है धधकती
दूजे की ज्योत जलाने से केवल बढ़ती है शक्ती
एक हो तो नमन, अनेक हो तो भक्ती
तो जब लौ नहीं शर्माती किसी दूजे को रौशन करने में
दूजी बाती में उष्ण गर्मी भरने में
तो मैं क्यूँ शरमाऊँ
क्यूँ अपने ज्ञान का दीपक
अपने मन में ही बस जलाऊँ
क्यूँ न औरों की ज्योत जलाऊँ
और इस अन्धकार को क्यूँ न दूर भगाऊँ
मेरी लौ से दूजी जले तो हम, दो हो जायेंगे
और धीरे धीरे करते सौ हो जायेंगे
फिर जब यह रौशनी सूरज का रूप लेगी
तम की गहरी चादर, थोड़ी तो हटेगी
तो अपनी लौ को जलाओ पहले
और दूजो में बांटो
और ज्ञान, हौसले और प्रेम की रौशनी
पूरे जग में बांटों
चिंगारी मैं देता हूँ
तुम बस स्वीकार करो
उस लौ से तुम भी सारे जग का उद्धार करो
फिर "मैं" से "हम दोनों",
"हम दोनों" से "हम सब" हो जायेगे
फिर "हम" भी.. प्रचंड , पवित्र, अग्नि कहलायेंगे
फिर" हम" भी.. प्रचंड , पवित्र, अग्नि कहलायेंगे
एक लौ से पूरा संसार जगमगायेंगे
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