Thursday, November 17, 2011
ए समंदर Copyright ©
इन बुलबुलों सा मेरा मुक़द्दर,
इस रेत सी मेरी प्यास
आज बुला ले ए समंदर
आज बुला ले अपने पास
आज भिगो दे मन को मेरे
आज भिगो दे मन की ये मेरी आस
खारे पानी में नेहला दे मुझे
नमक के हक का हो एहसास
लहरों को चीरने निकला था मैं
मगर कश्ती टूटने वाली है
अब न रेत के महल सुकून देते हैं
बस बवंडर देते थोडा विश्वास
आज समां जा मुझे , ले नीले आगोश में
आज तूफ़ान भी हैं कुछ खामोश से
आज हवायों में भी बारूद है
आज बादल भी न लगते ख़ास
ए , तूफानों से कश्ती निकालने वाले
तुझे मैं क्या दुबोऊंगा
तेरी जल समाधि का कैसे बोझ ढोऊंगा
तेरा मुक़द्दर मेरे जैसा नीला हो चला
तेरी प्यास मैं क्या भिगोऊंगा
मैं तो केवल खारा पानी हूँ
तू एक सोच है, तेरी नज़र है सूर्या का प्रकाश
तो ऐसे न आ मेरे पास
बुलबुलों को ना बना मुक़द्दर
रेत को रहने दे प्यासी
हिम्मत रख ज़रा सी
मैं समंदर, तुझसे आज एक लेता हूँ वादा
जीवन न रख अपना सादा
लहरों से जूझ
गुत्थियों को बूझ
मेरे नीलेपन की ओढ़ चादर
इस नमक का कर थोडा आदर
निकाल कश्ती एक बार फिर
निकल तूफानों से लड़ने
मैं अथाह सागर , तुझे प्रणाम करता हूँ
तेरी हिम्मत के आगे सर रखता हूँ
निकल फिरसे कुछ कर गुजरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
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