Dreams

Monday, November 28, 2011

बारूद ! Copyright ©


सीने की धड़कन है या यह धमाकों का शोर है
मन के सन्नाटे में गूंजती यह कैसी भोर है
लपलपाती जीभों की लार, या फिर टूटती यह डोर है
बारूदी समां है यह, बारूद हर ओर है







मन की सुरंगों में झाँकूँ तो बारूद पाता हूँ
दिल की चिंगारी को पर मैं इस से दूर हटाता हूँ
दोनों मिल जाएँ तो , धमाका न हो जाए कहीं
मैं यह बारूद सीने में इस कदर दबाता हूँ


कब आया बारूद यह मन में , कब ऐसा उनमाद हुआ
कब मासूमियत मर गयी, कब अन्दर का इंसान, हैवान हुआ
पता भी नहीं चल पाया, कितना खुरदुरापन आया मन भीतर
कब बारूद भर गया , कब अन्दर यम दीप दान हुआ


इन्द्रधनुष के रंगों सा मन, बारूदी काला हुआ
बचपन की किलकारी , सीने का भाला हुआ
खंरोच दिया गया नटखट्पन, उधेड़ी गयी काया
सर्प रुपी ज़हरीला डंक ही है मैंने अब संभाला हुआ


डस न जाऊं किसी को, न कर जाऊं सामूहिक निषेध
ढहा न जाऊं प्रेम की इमारतें, न कर जाऊं किसी के सीने में छेद
मन में राम था मेरे, दशानन ने मन चीन लिया
बारूदी सुरंगों में भस्म न हो जाएँ मन के यह वेद


पर बारूद निकालना है , पुनः इस मृत मन को करना है जीवित
ह्रदय को चाहे होना पड़े छलनी
किसी को डसने से पहले, नीलकंठ सा करूँ विष स्वयं धारण
यह बारूदी सुरंगे अब चाहिए नहीं पलनी


उस दिन का मुझे है इंतज़ार
जिस दिन विस्फोटक सब कुछ हो जाए बेकार
मन में केवल हो प्रेम का असल और आस्था का सूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद

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