Dreams

Tuesday, June 7, 2011

जान कर चलो, मान कर नहीं!! Copyright ©


न जाने कितनी सदियों से
भूमंडल पर यह रीत रही
कोई चल पड़ा , उस ओर ही भीड़ बही
झुण्ड में चलने की आदत हो चली
मान ली हर बात जो हर गड़रिये न कही
न नापा न तोला,न दिया ध्यान
क्या गलत है , क्या सही
अरे...
जान कर चलो, मान कर नहीं

सिंह अकेला चलता , और भेड़ झुण्ड में
सूर्य अकेला जलता, दीपमाला सा नहीं
उजाला करने के लिए
अंतर मन की रौशनी चाहिए, बाहर की नहीं
जान कर चलो, मान कर नहीं

धर्म के स्तम्भ ज्ञान पे टिके थे कभी
परमात्मा की अनुभूति पे आस्था थी टिकी
प्रतिमाओं और मसीहों को पूजने लगा जब मानुष
ठेकेदारों की तब धर्म जागीर बनी
अंधेपन की चादर में लिपटा इतिहास
बढा फिर भविष्य की ओर
जैसे मृत की सी अस्थियाँ बहीं
अरे जान कर चलो, मान कर नहीं

इतने गद्दी धारी आये और
गद्दी का मज़ा लूट के चले गए
हम बेचारे गले में माला
और फीते कटवाते रह गए
मान लिया कि , यह बदलाव लायेंगे
हमारी परिस्थितियों की पीड़ा हर जायेंगे
इनके निरंतर बलात्कार से भी नहीं सीखे हम
जो था सही...
कि जान कर चलो, मान कर नहीं

उस ज्ञान का क्या अभिप्राय
जो उपयोग में न लाया जाए
ईश्वर मंदिर में हैं, गिरजा और गुरूद्वारे में
पूजा पाठ में , दान में , जोग में
अरे भगवान् विवेक में है, चेतना में
किसी चार दीवारी , किसी पत्थर में नहीं...
जान कर चलो, मान कर नहीं...

मानना आसन है, जानना पारिश्रमिक
मार्ग पे चलना आसन है, बनाना कठिन
सौंदर्य को ताकना आसन है,
उसकी नीव रखना मुश्किल
मानना आसान, जानना कठिन
पर अज्ञान की परत जो चढ़ी है
उसे उतारना अनिवार्य है
और यह बहुत ही बड़ा कार्य है
मान लोगे बिना विवेक का प्रयोग किये
डाल लोगे शुतरमुर्ग की तरह सर मिट्टी में हो तो
कैसे जानोगे क्या गलत , क्या सही
इसीलिए अनुरोध....
जान कर चलो, मान कर नहीं
जान कर चलो, मान कर नहीं
जान कर चलो, मान कर नहीं

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