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गुरु ब्रह्मा , गुरु विष्णु
होते होंगे एक समय पे जब
मानवता जीवित थी
जब पापाचार की गठरी केवल
दैत्यों तक सीमित थी
अब पाप बहे हैं गंगा-गंगा
और गुरु हो गया है नंगा
हर ओर द्रोण हैं पनप रहे
एकलव्यों के अंगूठे बिखर रहे
कैसे करूँ गुरु तुमको प्रणाम
जब सिखलाओ तुम मुझको जो नहीं सही
और आज बता दूँ तुमको मैं कि
भक्त हूँ....मैं बेवक़ूफ़ नहीं
ईश ने भेजा दो लोगों को अपने रूप में धरती पे
रखा खुद को माँ और गुरु को अपनी ही वर्दी में
माँ तो देवी रह गयी पर गुरुओं ने यह क्या किया
शिष्यों की आस्था को अपने स्वार्थ नदिया में बहा दिया
शिष्यों की गुरु दक्षिणा की आड़ में न जाने कितने पाप किये
एकलव्यों ने अंगूठे ही नहीं...पूरे पूरे सर दिए
दुस्साहस किया किसी ने गुरु की बात को नकारने का
तो उन्होंने उसको निर्दयता से न जाने कितने श्राप दिए
शिष्यों ने न जाने इस भक्ती में कितनी पीड़ा सही
पर मैं बत्लादूं तुमको कि मैं
भक्त हूँ....बेवक़ूफ़ नहीं
प्रश्न उठा है मेरे मन में देखा जब यह पापाचार
ईश भी मेरा संग छोड़ेगा , क्या डालेगा मुझपे ऐसा हार?
भक्ती तो मैं उसकी भी करता
उसके बतलाये मार्ग पे चलता
क्या वो भी देगा मुझे नकार
क्या वो भी गुरु की भाँती
पहनेगा मेरे अंगूठों का हार
क्या तुम हो मेरे मन में बसते, क्या तुम हो गुरु वही
पर मैं भी बतला दूं तुमको कि मैं
भक्त हूँ...बेवक़ूफ़ नहीं
माँ सरस्वती ने तुमको दिया था एक ऐसा वरदान
ज्ञान स्रोत थे तुम कभी पर , अब करते केवल मुद्रा स्नान
अंगूठों की माला पहनना ,एकलव्यों को मझदार में छोड़ना
हो गया अब तुम्हारा गान
मैं भक्ती करता हूँ गुरूजी, भक्ती करता जाऊंगा
अपने शिष्य धर्म को जबतक प्राण हैं तब तक निभाऊंगा
देखो मेरे मुख चन्द्र पे ,
देखो कैसे मेरी भक्ती मेरे माथे पे चमक रही
पर याद रखना गुरूजी, कुछ करने से पहले
मैं भक्त हूँ...बेवक़ूफ़ नहीं
भक्त हूँ...बेवक़ूफ़ नहीं
भक्त हूँ..बेवक़ूफ़ नहीं!!
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