Dreams

Tuesday, May 11, 2010

तुम समझ लोगे या मैं चिल्लाऊं ? Copyright ©


मैं पुनः चिल्लाऊं

कि तुम समझ लोगे

मैं याद दिलाऊँ कि

तुम न भूलोगे?

कि तुम धधकती ज्वाला हो

नयी दिशा हो, मार्ग दर्शक भी

तुम ढाल हो , रक्षक भी

तुम विस्फोट भी हो

और गूँज भी

देश की नय्या भी हो और

चप्पू भी

भविष्य का चमकता सूरज

और टिमटिमाता सितारा भी

तुम ……।यूवा!


अरे मैं कब तक तुम्हारी

आत्मा को जगाता रहूँगा

कब तक यह शब्दों के

बाण तुमपे चलता रहूँगा

अरे बागडोर है हाथ में तुम्हारे

और “घोड़े” पे दिल्ली वाला “भूत” सवार है

भ्रष्टाचार का “चारा”

और साम्प्रदिकता का चाबुक है उन हाथों में

और घुडसाल का मालिक बना बैठा “गंवार”है

चश्मा उतारो और नज़रें मिलाओ

भौतिकवाद और पूँजीवाद के दानव से

राष्ट्रवाद को दीमक की तरह

चाट रहे सांप्रदायिक रावण से

भुखमरी की दैत्या से और

अशिक्षा के राक्षस से

बहरे कानो में न पड़ने दो

मेरी पुकार को

पहले कौन करेगा प्रारंभ

क्या इसलिए रुके हो

लो मैंने कर दिया आघाज़

अब कदम बढाओ

मैं हूँ तुम्हारी आवाज़

अब न रुके पाऊँ

तुम समझ लोगे

कि मैं पुनः चिल्लाऊं?


वर्त्तमान का पतन जो हो रहा

उसे तुम्हे सवारना है

भविष्य का सिक्का

तुम्हे चमकाना है

जो हाथ अभी तक बंधे थे

अब उन्ही से तलवार चलाना है

तो आत्मा दुबक गयी थी डर से

उसे वापिस सहलाना है

जो विवेक सो गया था

उसे एक बार फिर जगाना है

लो अब मैंने छेड दी मुहीम

पता मुझे है कि

तुम्हारे अन्दर के हनुमान को

मैंने ही वापिस लाना है

अब बागडोर है हाथो में

देखो अब न लडखडाओ

नाज़ुक सा पौधा है हाथ में

उसे प्रेम से खिलाओ

यकीं मुझे, कि तुम होगे कामयाब

और आएगा नयी व्यवस्था स्थापित

करने का सैलाब

अब मैं क्या तुम्हे समझाऊं

तुम समझ ही लोगे?

या मैं पुनः चिल्लाऊं

पुनः चिल्लाऊं

पुनः चिल्लाऊं?

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