Dreams

Wednesday, May 19, 2010

भूखा बावरची ! Copyright ©


भूख हर ओर है बिखरी

जीतने की भूख

वैभव की भूख

समृद्धि की भूख

ख्याति की भूख

खरार्नाक है यह भूख

“स्वयं” को निगलती यह भूख

लेकिन इस से भयावह है

अन्दर का कौतुहल

भीतर की उत्सुतुकता

और हलचल

जो बांधे नहीं बंधती

किसी भी पकवान के पकने से पहले

जो घुमा देती करछी

जैसे हो भूखा बावरची


आज धैर्य न जाने कहाँ खो गया है

कौतुहल ही कौतुहल मचा है

धर्मराज ने जो सिखलाया था

पौरुष की परिभाषा को

उसमे धैर्य था सबसे ऊपर

आज न जाने कहाँ गया यह भाव ह्रदय से

आज तो जीना उत्सुकता मैं हो गया दूभर

धैर्य था गहना सीता माँ का

और द्रौपदी का विश्वास भी

आज तो न है इस युग की नारी, सीता

ना है बनवास कहीं

शायद परिस्थिति ही बदल गयी हैं

सब चाहें समय से पहले सब कुछ होना

आत्मीयता, प्रेम, विश्वास खो भी दें

पर समय किसी को न आज है खोना

इस भूखे बावरची ने

अपने मन की हलचल से

खो दी है शक्ति

विश्वास की

मन चाहा निर्णय न पाने पे

छोड़ दी है डोरी

प्रयास की

और इस कौतुहल के ही लिए

पकडे है हाथ में भाला और बरछी

बन गया मानव नरभक्षी

भूखा बावरची


तन और मन के स्वास्थ के लिए

भविष्य के सूरज के सूर्योदय

और भूत के खोये सूर्यस्थ के लिए

कर लो आँखे बंद

धैर्य का धागा पकड़ो

और करलो मन को प्रचंड

कौतुहल में बस तनाव छुपा है

रोग का चुनाव बसा है

चिंता चाहे जिसकी भी हो

होती चिता सामान है

धैर्य जो धरता जीवन में

वो “शिव” का प्रमाण है

स्वयं से कहदो

आज नहीं तो कल तो होगा

और पहनूंगा मैं जीत का चोगा

पहना दो मुझे सहनशीलता

और धैर्य करो मुझे प्रदान

हर स्थिति में डटे रहूँ मैं

और धैर्य हो इसका निदान

इतिहास रच दूँ

हो जाऊं सत्य का साक्षी

नहीं रहना घबराहट में

नहीं होना

भूखा बावरची

नहीं होना

भूखा बावरची।

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