ये अध्याय प्रारंभ हुआ था
एक ध्येय से
सत्य और मिथ्या की खोज के लिए
शाम ढली
सूर्या छुपा
चादर काली घनी रात की
छा गयी
प्रतीत हुआ यह रात चलेगी
बहुत लम्बी
घबराया मन, विश्वास लडखडाया
लेकिन अन्दर वो लौ बाकी थी
जो इस काली रात को
प्रज्वलित करने के लिए काफी थी
और हलकी आवाज आती हमेशा
कि इस रात की सुबह ज़रूर होगी
समय थम सा गया था
लहू जम सा गया था
सपने थर्राए
और हौसला कम सा गया था
आँखे नम थी
अँधेरा हर ओर, चांदनी कम थी
तारे भी न टिमटिमा रहे
धुंधली राह और
डर की लहर देह में बहे
पर अनोखा ,असामान्य
मेरा मन था
दृढ़ता की चट्टान
हौसले का सागर
और कर गुजरने की कमान
जिसने उस लौ को बुझने
न दिया
रात उसकी गर्मी से
काटने की थी चाह
फिर हल्का हल्का हुआ सवेरा
मन प्रसन्न हुआ
जैसे पंछी अपने छोड़े बसेरा
भयानक रात थी
पर हुआ यकीन
कि मेरे क्षमता को परखने
के लिए ही
बनायीं थी उसने यह इतनी संगीन
चाहता था वो मैं काली रात
से न घबराऊं
अपने सपनो को मुट्ठी में
थाम के सो जाऊं
भोगने से पहले बनू योगी
इस रात की सुबह ज़रूर होगी
अब जब सवेरा हो चला
चमकता सूरज उग चला
खुशियों के सागर में गोते खाके
मन मेरा उड़ चला
तब याद आती वो रात
जिसने किया था आघात
चोट पहुँचाने का प्रयास
मेरी दृढ़ता की चट्टान पे
पर न हिला मेरा विश्वास
आज मैं बुलंद हूँ
हर आने वाली रात पे प्रचंड हूँ
अपनी शक्ति पे है भरोसा
क्षमा याचना यदि मैंने किसी को भी कोसा
पर जब जब भी आएगी यह रात
और जब जब मन घबराये
तब तब कर ले मुट्ठी में बंद सपने अपने
और बस सो जा तान के विश्वास की चोगी
क्यूकी यह रात भले कितनी काली या लम्बी हो
इसकी सुबह ज़रूर होगी
ज़रूर होगी
ज़रूर होगी
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