Dreams

Tuesday, January 4, 2011

अंदाज़-ऐ-बयाँ... Copyright ©


टांग अड़ा दी हमने

बंद होते दरवाजों पे

शिकस्त दे दी हमने हुक्मरानों को

ज़िंदगी की बिसातों पे

ठोकरों का सहारा लिया हमने

और चढ़ाई की आसमानों पे

हिल गए प्रयास सबके

जिन्होंने कभी भी हमे दगा दिया

नीस्त-ऐ-नाबूत हो गयीं वो मीनारें

जिन्होंने हमे दबा दिया



यह अड़इयल्पन लाज़मी है

इन दीवारों से टकराने के लिए

यह अक्खड़पन ज़रूरी है

जंजीरों को तोड़ने के लिए

मासूमियत तो ठीक है

पर फौलादी जवाब के बिना

हर जंग अधूरी है



तंग गलियों से न घबरा

वो तो ऊपर बढ़ने का सहारा हैं

बंद कमरों से मत शरमा

वो तो अन्दर की आग उब्लाने के

काम आती हैं

गिर जाने से मत घबरा

वो तो ऊपर उठने का सहारा है

और हार ही तो जीतने का एक बहाना है



रसीद होने ने अपने गाल पे

भाग्य के तमाचे को

धधकने दे कानो में अपने

समय के धमाके को

पर याद रख हर सीढ़ी जो

तेरे पीछे छूट जाती है

वो ही ऊपर बढ़ने की राह

दिखा जाती है

समय , काल और स्थिति

अनुकूल हो न हो

पर देते नहीं धोके

बस नज़र हो टिकी चोटी पे

वो तो मौके होते हैं मौके



अंदाज़- ऐ – बयाँ हो हरदम

सागर सा

जो सन्नाटों को चीर दे

जो ऊंचाइयों को भेद दे

गहराईयों को नाप ले

तूफानों को धूल चटा दे

बेरंगियत में रंग चढ़ा दे

अंजाम हो चाहे जो भी

अगर न हुआ अंदाज़ तेरा धधकता हुआ

तो हर अंजाम फीका है

तूने केवल दबना सीखा है



तो हर चीज़ को अंजाम चाहे जो भी दे तू

अंदाज़-ए- बयाँ पे टिकी हो तेरी नज़र

हो जाने दे इस अंदाज़ की हर एक को खबर

हो जाने दे इस अंदाज़ की हर एक को खबर

हो जाने दे इस अंदाज़ की हर एक को खबर


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