कविवर अब तो थम जाओ
कितने ढाओगे
पंग्तियों के कितने धनुष
कितने शब्दों के बाण चलाओगे
सोच के सागर की गहराई से तुमने
इतने मोती हैं निकाले
समाज का प्रतिबिम्ब बन गए
कितने चेहरे हैं आईने में उतारे
कविवर यह निरंतर खोज
कब तक है जारी
कब तक आसमान पे तकते रहोगे
कब तक है कंधो में बोझ भारी
कवि तो हम कहते हैं
तुम दार्शनिक हो गए
सारे खेल समझ लिए
सब में पारंगत हो गए
मैं तो हरदम चलते रहने
की धुन में हूँ पड़ा
गिरुं चाहे सम्भ्लूं
मैं तो शिखर की ओर ही बढ़ चला
आ मेरे संग तू भी
लहरें क्यूँ हैं , ऐसी क्यूँ हैं वैसी क्यूँ हैं..
ऐसे सवाल मत कर..
या तो संग बह चल
या चीर के उस पार निकल
No comments:
Post a Comment