हर बार ब्रह्मास्त्र उठाया अपना
पर गांडीव ही फिसल गया
प्रत्यंचा क्या चढ़ाएंगे
तरकस क्या संभालेंगे
लक्ष्य ही बदल गया
धत तेरे की
अथाह मरुस्थल के क्षितिज पर
मृग दिया दिखाई
दिल में उम्मीद जग आई
दौड़े उसकी ओर पूरे वेग से
पर मृगत्रिष्णा ही की अनुभूति हो पायी
धत तेरे की
परिंदों को उड़ते देख
मन में उड़ने की इच्छा उड़ आई
सोचा पंखों से क्या होगा
हौसले की है अपनी अंगडाई
पेंग लगायी
धूल ही धूल खायी
धत तेरे की
गहरे समुन्दर से मोती ले आने का
जोश भी जागा
हमने डुबकी लगाई
लहरों ने खेल खेला हमारे साथ
और बस केवल जल समाधि ही हो पायी
धत तेरे की
क्या यह सारे प्रयास और लक्ष्य
सारे ही सपने बेबुनियाद थे
या कल्पना के अश्वा बेलगाम थे
जो भी हो
हर बार यह ही आवाज़ निकली
धत तेरे की
धत तेरे की
कब तक ‘तेरे’ की धत करता रहूँगा
कब तक निराशा का रंग मढ़ता रहूँगा
कब तक डरता रहूँगा
पता नहीं
बस इतना पता है कि
अब गांडीव नहीं फिसलेगा
अब मृग प्रत्यक्ष दिखेगा
अब उड़ान होगी
ढूंढ लूँगा समंदर से मोती
दौड़ता रहूँगा जब तक हर इच्छा पूरी नहीं होती
जब तक नहीं पी लेता मदिरा सुनहरे सवेरे की
बोलना छोड़ नहीं देता
धत तेरे की
धत तेरे की
धत तेरे की!
2 comments:
bahut achcha likha hai :)
recent poem : मायने बदल गऐ
जब तक नहीं पी लेता मदिरा सुनहरे सवेरे की
बोलना छोड़ नहीं देता
धत तेरे की
Waahm bahut sundar:-)
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