तुम्हारी ज़रुरत नहीं है
कहा उसने
तुम्हारी ज़रुरत नहीं है
कहा उन सबने
और कुछ पल के लिए
इसे हकीकत मान गए हम
हम ज़रुरत न बन सके
किसी की यह यकीन कर गए हम
तुम्हारी ज़रुरत नहीं
तुम्हारी ज़रुरत नहीं
हर दरवाज़े से खदेड़ा गया मैं
हर मंजिल से पहले ढेर हुआ
हर वादा टूट गया
हर इरादा नीस्त-इ-नाबूत हुआ
नासूर सी हो गयी ज़िन्दगी
केवल खून का घूँट पिया
रास्ते दर रास्ते
मंजिल दर मंजिल
हर राही ने फेंका पत्थर
किसी के मूह से न निकली दुआ
“तुम्हारी ज़रुरत नहीं”
मेरा नारा हुआ……
ज़रुरत नहीं?
इन हवाओ को ज़रुरत है
मेरे इरादे की
उन तूफानों को ज़रुरत
है कि कोई उसे ललकार सके
उस सूरज को ज़रुरत है
जिसकी आँखों में आँख डाले
कोई उसी की तरह चिंघाड़ सके
हवाओं का क्या मकसद
जो कोई उसे चीर न सके
रौशनी का क्या मतलब
जो कोई अपने तेज से उसे
न चौंधिया सके
तूफानों की क्या औकात
जो ऐसी चट्टान से न टकराए
जो उसे चौड़ा सीना दिखाए
और उसे ढेर कर जाए
ज़रुरत है..
भरोसे को
ज़रुरत है
उजाले को
ज़रुरत है
हकीकत को
ज़रुरत
है रूहों को
ज़रुरत है
सन्नाटों को
ज़रुरत है
जीत को
ज़रुरत है
तूफानों को
ज़रुरत है
फिजाओं को
जो कहते हैं
ज़रुरत नहीं तुम्हारी
उन्हें होश की दावा की
ज़रुरत है
जिन हुक्मरानों ने
इरादों की मीनारें गिरायीं है
उन्हें ज़रुरत है इरादों की
जिन लोगों ने पर काटे हैं मेरे
उन्हें ज़रुरत है
उड़ानों की
जिन्होंने मेरी कलम तोड़ी है
उन्हें ज़रुरत है
स्याही…
उन्हें ज़रुरत है अल्फाजों की
ज़रुरत नहीं?
ज़रुरत है
ज़रुरत है
ज़रुरत है..
1 comment:
जरूरत के इतने आयाम.. क्या बात है !
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