Dreams

Thursday, December 16, 2010

धर्मराज या पार्थ Copyright ©


यह निरंतर युद्ध है

चला आ रहा सदियों से

गूँज रहा यह प्रश्न इतिहास में

और अस्तित्व पे प्रश्न बन गया

पहले सोचें की पहले करे कर्म

एक अनुयायी जीवन का क्या है धर्म

जो सोचते रह जाते हैं और खड्ग नहीं उठाते हैं

या जो कर्म कर जाते हैं और सोच नहीं पाते हैं

या तोल मोल के सोच और कर्म का धागा एक साथ पकड़ जाते हैं?

क्या है वो मध्य रेखा जिसका हम चुने पथ

कर्मठता कि सोच की धारा

इस प्रश्न ने हरदम मानव को है ललकारा…

धर्मराज बनें कि पार्थ

सोच का सागर कि यथार्थ?



प्रेम और युद्ध में सोचा नहीं जाता

आचरण बनाने के लिए 'किया' नहीं जाता

विचार और प्रत्यक्ष में बहुत अंतर है प्यारे

इन दोनों को एक सूत्र में हरदम बाँधा नहीं जाता



आप क्या हैं?

करने वाले कि विचारक

प्रयास करने वाले कि

प्रचारक?

आप सोचते हैं कि करते हैं

या केवल सोचने का दम भरते हैं

राजनीति से जीतेंगे कि जंग से

कल्पना से कि लहू के रंग से

चुनाव हरदम आपका है

एक ओर गद्दी है और एक ओर गांडीव

खड्ग है एक और एक ओर राजीव

चुनाव आपका है

जीवन आपका है

मार्ग आपका है

धर्मराज बनें कि पार्थ

सोच का सागर कि यथार्थ?



मैंने चयन कर लिया

गांडीव पे प्रत्यंचा चढ़ा दी

शंख भी बजा दिया

और अश्वा पे लगा ली लगाम भी

अब विजय , चाहे मृत्यु

कितना विरोधी हो शत्रु

तम को मैं दूर भगा रहा

स्वयं को चमका रहा

कर्म से

धर्म से

युद्ध से

मेरा चुनाव हो चुका

सोच का सागर नहीं…..

यथार्थ..

धर्मराज नहीं..

पार्थ

धर्मराज नहीं

पार्थ

धर्मराज नहीं

पार्थ

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