जीवन मंच की कठपुतली
बन जाते तुम , रहते मौन
डोर जो खींची उसने तो
कौन रजा और रंक कौन
समय का पहिया
भाग्य की बिसात
उसके हाथ में रहता
हर सवाल का जवाब
परदे के पीछे छिपकर
संचालित करता तेरा जीवन
तेरी मृत्यु, तेरा बुढापा
तेरी जवानी, तेरा बचपन
कौन है जो है निराकार
कौन संचालक
कौन सूत्रधार
हमने सब छोड़ा उस
शक्ति पे
हमे गिराए
हमे उठाये
सहारा और धक्का दे
प्रभु, मौला, मालिक
दाता, ईश , भगवान्
यह सब हम तुमने दिए हैं उसे
यह सब है उसके नाम
बहुत सोचा बहुत बूझा
उसकी गुत्थी न सुलझा पाया
जिसका कोई आकर नहीं है
न कोई उसकी काया
एक दिन आँखें बंद की
और उसको अपने अन्दर पाया
मुझमे ही वो भाव छुपा था
मैं ही था आराध्य मैं ही माया
अपने जीवन मंच की
कठपुतली भी मैं
और डोर खींचता
कथ्पुत्लिकार भी
संचालक भी मैं ही
मैं ही सूत्रधार भी
जिस शक्ति की अनुभूति
हम सब करना चाहते हैं
जिस परम पिता की संतान
हम सब बनना चाहते हैं
जिस ब्रह्माण्ड के स्वामी
हम होना चाहते हैं
वो अपने भीतर है.......
जिस शक्ति से जन्म लिया हमने
वो हरदम यह ही चाहती थी
कि हम ही बने इसका विधाता
इसका दिया और बाती भी
शक्ति का स्रोत ढूंढें तू
या अमर होने की हो चाह
बस अपना मंदिर बना ले
अपने अन्दर
और कर ऐसे जीवन निर्वाह
क्यूँकी
रंग मंच भी तू ही
कलाकार भी
संचालक भी तू
तू ही सूत्रधार भी
तू ही सूत्रधार भी!
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