कभी कभी मैं
रूठ जाता
मनाता न कोई....
कभी कभी क्रोधित
हो जाता
सहलाता न कोई.....
विरोधी हो जाऊं कभी तो
सब वीर पुकारते
चुभे कांटो को
पर निकालता न कोई......
लाठी बन गया औरों की
पर घिसते छोर पर
मरहम लगाता न कोई
निमित्त मात्र सा हो गया
पर भाव समझ पाता न कोई
तो इसी करणवश
मैंने सारे द्वार बंद कर दिए
सारी पीड़ा पी जाऊं स्वयं की
और शंकर का कंठ बन जाऊं
बोलना छोड़ दिया
व्यक्त करना छोड़ दिया
ताकि कोई मरहम न लगा सके
तो क्या
कम से कम आग भड़काए
न कोई…
द्वार बंद करने से
कई लाभ हुए कई घाटे हुए
कई सवाल पूछे मैंने
कई घाव फिर से काटे गए
अन्दर की चेतना का हुआ आभास
और मन की कालिक साफ़ करने
का भी किया प्रयास
जलाये दीपक स्वयं के
और कुंठा को बुझा दिया
बाहर वालों ने
अन्दर बंद मुझे
अब एकदम ही भुला दिया
यह दुखद भी था
और मेरे लिए लाभदायक भी
उनके लिए एक और मसखरा हार
गया था
तथाकथित एक और बोझ
उठ गया था
एक और तारा
ध्रुव बन ने से पहले
बुझ गया था
अब मुझे खेद नहीं
कि मैं भुला दिया गया
खेद नहीं कि समय से पहले
मुझे गहरी नींद सुला दिया गया
क्यूंकी इन बंद द्वारों के अन्दर
मैं मिल गया मैं में
सबकी चिंता न करता जो
पीड़ा न होती जिसे
सहता न जो
घ्रिना न होती जिसे
किसी के कहने से न होता
कौतुहल
न विचलित होता मन
न लेता माथे पे बल
धन्यवाद जिन्होंने
द्वार बंद करवाया
धन्यवाद जिन्होंने
पीड़ा , कुंठा और शर्म
से मुझे अवगत कराया
मैं अब स्वतंत्र हूँ
इन सब से
क्यूंकी मैंने स्वयं की
ओर है कदम बढाया
और बंद द्वार जो तुम्हारे लिए हैं
मेरे लिए तुमने स्वयं का मार्ग
खुलवाया
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