Dreams

Friday, July 16, 2010

पहले संचय फिर वितरण ! Copyright ©


संतों की वाणी में

किस्सा कहानी में

ग्रंथों के ज्ञान में

भाग्य के तीखे बाण में

समय के पहिये में

गीता में कुरान में

देने की बात है

दाता बन के ही

परमात्मा का साथ है

जो दाता है वो

चाहे हर पल

मूह की खाता है

पर अंत में

संत कहलाता है

प्रेम में दिया करो

समाज में दिया करो

ज्ञान का दाता बनो

पर सोचो

यह प्रेम, धन और ज्ञान

कहाँ से आता है

यह कोई ग्रन्थ नहीं सिखाता

कोई पाठ नहीं पढाता

कि , बोलने से पहले चिंतन

और पहले संचय फिर वितरण


मैं देने को आतुर हूँ

बांटने को तैयार हूँ

जो प्रेम है, जो ज्ञान है

और जो थोडा बहुत धन है

उसे फ़ैलाने को राज़ी हूँ

मैं भी यह ही सोचूं

कि मेरे हाथ हमेशा

देने को बढें

मांगे न, बस दें

पर एक दिन सोच रहा था

कि दे तो दूं

पर देने को कुछ हो तो

बाँट तो दूं पर

बांटने को कुछ हो तो

बड़ों ने कहा

बेटा बांटेगा तो आएगा

दे तब ही तुझे मिल जाएगा

मैंने बात सुनी और

घबराया

देने के डर से थरथराया

फिर अपना एक नया नियम बनाया

देना तो है….

उसी के लिए जी रहा मैं

बांटना तो है

उसी के लिए सींच रहा मैं

ज्ञान बांटने के लिए

पहले हो उसका सृजन

उसका अध्ययन और अर्जन

पहले संचय फिर वितरण


और इसके लिए स्वार्थी भी होना

पड़े तो हो जा बन्दे

क्यूँकी जिस ज्ञान जिस भौतिक धन

को तू बांटेगा

तेरे पसीने की है जो फसल

वो पहले तू काटेगा

जब तेरा पेट भरा होगा

तब ही तू हिस्सा काटेगा

और देगा

भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता

बिना ज्ञान चक्षु खोले तो सृजन

भी नहीं होता.

और स्वार्थ होना कोई पाप नहीं

बस उतना हो कि किसी और के

जीवन पे न हो जाए

उसकी छाप कहीं.

तो कर संकल्प तू भी

और प्रतिबद्ध हो जा देने के लिए

हो जा कमल का पत्ता

हो जा रेत और हो जा दर्पण

पहले कर संचय

फिर वितरण

संचय फिर वितरण

संचय फिर वितरण

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