कटे कटे से रह गए
बंधे बंधे से भी
मंजिल का पता नहीं
राह हो रही धुंधली
साफ़ करूँ जितना भी
कांटे आ ही जाते है
मखमल की राहे चाहूं मैं
पाँव मेरे लडखडा ही जाते हैं
श्वेत ह्रदय था, चंचल मन
उड़ने की चाह और खुला गगन
जैसे ही भरी उड़ान
पंख कुतरे जाते हैं
प्रयास किये अनगिनत
डगमगाया भी
यह सोचके कि अब जीतूँगा
केवल धूल ही चाटी
पंक्तियों में विश्वास भरा था
अक्षर गुनगुनाते थे
वाक्य हो गए फीके अब
शब्द अब बस हैं लडखडाते
आसमान पे नज़र टिकी थी
पाँव धरती पे थे जमे
सूरज के जैसे चमकने के
सपने देखे थे बड़े
रोता था मैं कभी
आज बस अचंभित हूँ
न भविष्य का हूँ चमकता तारा
न इतिहास में अंकित हूँ
फिर एक दिन कोई बोला
तीर जो भेदे लक्ष्य को
उसे तो पहले पीछे ही खींचना होता है
प्रत्यंचा के विश्वास से ही
आगे प्रक्षेपित होता है
आँखे चाहे कोई बंद कर ले
सूर्या के तेज से न बच पाता है
पर सूर्या से पूछो, वो जो स्वयं जलता है
और पूरे जग को रौशनी दिलाता है
कठिन राह है , धुंधली दृष्टि
विश्वास भी डगमगा गया
पर सपने इतने पक्के हैं कि
ईश भी अब शर्मा गया
कल नया दिन है , नया प्रयास
जीतने के सारे शास्त्र भी हैं मेरे पास
घबरायीं आँखों पे हैं दूरदृष्टि का काजल
और विजय समारोह का बिगुल बजने की है आस
मैं गिरा था , अब फिर उठा हूँ
थम गया था, दौड़ पड़ा हूँ
रो पड़ा था , मुस्कुरा दिया हूँ
खो गया था… मिल चुका हूँ
खो गया था..मिल चुका हूँ
खो गया था..मिल चुका हूँ!
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