Dreams

Tuesday, July 13, 2010

बंद खिड़कियाँ ...खुले द्वार ! Copyright ©


आज शाम को ऐसे ही अनायास

खिड़की की ओर दृष्टि गयी

गर्मी के ढलते सूरज

की एक किरण दिखाई दी

लहलहाते पेड़

शीतल पुरवाई

और प्रकृति की पुकार

सुनाई दी


ऐसे अकस्मात् ही यह

विचार मन में आया

इतनी सुन्दरता है बाहर

खिड़की मेरी बंद क्यूँ थी

तभी हलकी सी आहट हुई

गर्दन घुमाई और पाया

कि द्वार तो खुला था

और पवन का एक झोंका

अन्दर आ धमका था

साथ में ठंडक और एक

अद्भुत सुगंध ले आ चुका था

जब मैं इस सुगंध , और पुरवाई

के झोंके का आनंद ले रहा था

विचार यह आया

कि खिड़की तो मैंने बंद की थी

द्वार स्वयं ही कैसे खुला था?

कहीं मैंने मन की खिडकियाँ

स्वयं ही बंद तो नहीं कर दी

और यदि कर दी तो यह

कौनसा द्वार खुला है

जहाँ से एक नया सूरज उगा है?

या फिर यह एक संकेत है उसका

कि यदि तू एक खिड़की बंद करेगा

तो मैं तेरे लिए नए द्वार दूंगा खोल

तू बस बोल…

या यह कि

खिड़कियाँ मन की बंद न कर

द्वार तो खुल ही जायेंगे

बाहर सुन्दर संसार पड़ा

भीतर के चक्षु तो अमृत ही पायेंगे

फिर अकस्मात् ही मैंने सोचा

कि खिडकियाँ और द्वार तो मेरे अन्दर हैं

किसे खोलना किसे करना बंद

मेरा मन तो दर्पण है..

आत्मा मेरी पारदर्शी

देख सके जो बंद आखें भी आर पार

चाहे बंद हो खिडकियाँ या हों खुले द्वार


इस सोच के साथ

खिड़कियाँ खट्काता हूँ

द्वार खुल ही जायेंगे

मैं बस बाहर -भीतर की सुन्दरता

में विलीन हो जाता हूँ

खिड़कियाँ खोलना मेरा कर्म है

द्वार खोलना उसका काम

ज्ञान चक्षु खोलना मेरा धर्म है

ब्रह्म ज्ञान देना उसका काम

तो आज से

यह बंद खिड़कियाँ

यह सारी रुकावटें

यह सारी चिट्कानिया

यह सारी बनावटें

खोल रहा हूँ

सुन्दरता को पी रहा हूँ

अपने मन को जीत रहा हूँ

ज्ञान अर्जन के सारे मार्ग

मैंने खोल दिए हैं

देखे क्या कहाँ मिलता है

मैंने पत्ते अपने खोल दिए हैं

अब चाहे डूबूं चाहे

लग जाए नया पार

अब ना हैं बंद खिडकियाँ

अब तो बस हैं खुले द्वार

अब तो बस हैं खुले द्वार

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