करना कुछ चाहता हूँ
हो कुछ जाता है
क्या करें…
बने बनाये खेल को
बिगाड़ने की आदत है मुझे
भाव क्या था मन में
और क्या जिव्व्हा पे आये
तीखे कटाक्ष से
अपनों की छाती भिद जाए
क्या करें
मिठास में कड़वाहट घोलने की
आदत है मुझे
मंसूबों , इरादों की उड़ान
भरना चाहता हूँ हरदम
पर क्या करें
उड़ान से पहले
पंख कुतर्वाने की
आदत है मुझे
इतना प्रेम है मन में
और उस से कहीं अधिक बांटना चाहता हूँ
पर क्या करें
प्रेम की खुशबू में अपेक्षा का विष
घोलने की आदत है मुझे
मासूम सा चेहरा लिए
और बच्चों की सी मुस्कान भरके
खुशियाँ बांटना चाहता हूँ
पर क्या करें
रौद्र रूप की छाप
छोड़ने की आदत है मुझे
झोली सबकी भरना चाहता हूँ
पर क्या करें
मनुष्य हूँ
मांगने की आदत है मुझे
जी भर के रोना चाहता हूँ
एक दिन
पर क्या करूँ
औरों का स्तम्भ
औरों की लाठी
बन्ने की आदत है मुझे
कभी मन चाहे कि
सब छोड़ के” उसमे” विलीन हो जाऊं
पर क्या करूँ
जीवन के तूफ़ान से
टकराने की आदत है मुझे
भौतिक सुख की इच्छा रखता हूँ
क्यूंकी मनुष्य हूँ
पर क्या करूँ
निमित्त मात्र बन ने की
आदत है मुझे
देखो यहाँ भी
कुछ और बोलना चाहता था
शब्दों से कुछ बुन न चाहता था
“मेरी तरह न बन जाना”
यह सुनाना चाहता था
क्षमा मांगना चाहता था
उम्मीद जगाना चाहता था
पर क्या करूँ
रुलाने की आदत है मुझे
जले दिए ..बुझाने की आदत है मुझे
भीड़ में ..खो जाने की आदत है मुझे
आंसूं छलकाने की आदत है मुझे
बस क्या करूँ…
आदत है मुझे
आदत है मुझे!
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