सोच के सागर में
गोते खाके
नायब मोती खोज रहा।
नितदिन अपनी कविता का
अभिप्राय खुदसे पूछ रहा
व्यंग के तीरों से
सारे कोने भेद रहा
ज्ञात नहीं मुझे अभी, पर
मैं अंतिम पंक्ति ढूंढ रहा।
प्रेमी मुझको कोई कहता
वीर रस का कोई ज्ञाता
हास्य रस का कोई रचैता
कोई बस यूँ ही गुण गाता।
किसी पंक्ति की वाह वाह होती
किसी विचार की निंदा करते
कोई कविता दिल छू लेती
किसी रचना पे कटाक्ष होते।
उम्मीद दिलाती कोई कविता
कोई शर्म से पानी करती
कोई छाती भेदे सबकी
कोई उनपे मरहम लगाती।
कोई सोचे “ कवी यह क्या कह रहा”
ज्ञात नहीं है उन्हें की मै तो
बस उत्तर अपना बूझ रहा
राह हो रही धुंधली तो क्या..
मैं तो अंतिम पंक्ति ढूंढ रहा!
प्रथम पृष्ट की प्रथम रचना
थी मेरी उम्मीद भरी
शैली जो भी हो गयी हो
मेरी कविता नहीं डरी।
प्रतिदिन पथ पे चल रहा मैं
यात्रा अभी पूरी नहीं हुई।
क्षमा याचना मेरी ओर से
यदि पाठक को अप्रीय लगा,खेद नहीं पर अपनी चाल पे
क्युंकि
मैं बस अंतिम पंक्ति ढूंढ रहा
मैं बस अंतिम पंक्ति ढूंढ रहा।
1 comment:
arey bahut badiya ..mai bhi likhne wali thi is topic par ..par aap to humesha mujhase pehle hi kar dete ho har cheez ..bahut badiya sir bahut badiya...acha likha hai ..sahi.. sahi
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