नहीं यह कविता होली पे नहीं
गुजिया ,टीके और रोली पे नहीं
भंग, ठंडाई
और नशे में धुत टोली पे नहीं।
यह तो मेरे भारतीय
होने पे सवाल है
हरे, भगुए और श्वेत से
साफ़ गद्दारी की मिसाल है।
रचना हुई जब तिरंगे की
१९ ४७ में
भगवा होता था
विलासी जीवन को त्याग
निष्ठां और साहस से
कर्म करने का पराग।
आज है वही भगवा
लहू और पापाचार से लतपत
भौतिक सुख के पीछे भागता
हर भारतीय सरपट।
मध्य में श्वेत का था जो फैलाव
करता था सत्य और साहस से
हर भारतीय का घिराव
आज हमने उसी श्वेत की
परिभाषा ही बदल दी
“ सफ़ेद झूठ “ पे निर्भर
आज परजातंत्र की कली ही मसल दी।
और उसी श्वेत से आज
हर गली,हर कूचे में
लाशें लिपटी हैं
और श्वेत रंग की अपने घर में
भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता
की दीमक चिपटी है।
हरा रंग था मिटटी और खेतों से लगाव
आगे बढ़ना ,परिवर्तन और मृत्यु की उपेक्षा
नए जीवन का चुनाव
आज “ हरा” बस हमारे बटुए में दिखता है
और उसके लिए हम सब का इमान
बड़े सस्ते में बिकता है।
अशोक चक्र था चिन्ह
निरंतर घूमते समय के पहिये का
प्रतिपल परिवर्तित होते मनुष्य
और उठान के ढ इये का।
लेकिन आज गोल सिर्फ सिक्का और पैसा है
हमारे पतन रुपी यमराज का साक्षात भैंसा है।
हे मात्र भूमि,हे भारत माता
मुझे गद्दारी की सजा दे
तेरे दुग्ध की लाज न रख सका
आजीवन कारावास , काले पानी
या सूली मैं फसा दे।
परन्तु मुझे एक बार दे अवसर
तेरे दामन से हर दाग को
साफ़ कर सकूँ
और तिरंगे के मौलिक रंगों से
पुनः तेरे आँचल को ढक सकूँ
तिरंगे के मौलिक रंगों से
पुनः तेरे आँचल को ढक सकूँ!
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