Dreams

Saturday, March 20, 2010

अहम् ब्रह्मास्मि ! Copyright ©.


कोई क्यूँ कहे मुझसे

कि मैं हारा या जीता हूँ

मापदंड क्यूँ बनाये कोई

कि मैं जीवन के जाम को

कैसे पीता हूँ

या फिर रिश्ते नातो को

अपने किस सूत्र में पिरोता हूँ।

मेरे मुख चन्द्र के तेज को

कोई क्यूँ तुलना करे किसी से

सूर्या की किरणों से तीखी है

मेरी आँखों की रश्मि

घोषणा मैं करता हूँ उन से

अहम् ब्रह्मास्मि

अहम् ब्रह्मास्मि!


सुनी थी तुलसी दास की रचना बचपन में

पवन सूत हनुमान के जीवन पे

अपनी अपार शक्ति का भूल जाता मारुती

स्मरण कराना पड़ता था हर दम उसे

स्वयं कि आकृति।

मुझे तो याद है अपनी शक्ति

शिखर पे कैसे पहुंचना है

उसकी श्रद्धा और भक्ति

फिर किसी को क्यूँ यह अधिकार दूँ

कि वोह मुझे नाप सकें

क्यूँ यह प्रमाण दूँ

जो वोह भांप सकें।

उनके न्यायलय में क्यूँ हरदम

खड़ा करने दूँ खुद को

ताकि मेरी हर एक गतिविधि पे

वोह मुकद्दमा चलायें

और हर कार्य के बाद

अपना फैसला सुनाएं

जब कि मैं जानता हूँ

कि मैं मैं हूँ

जैसा भी हूँ ……असमी

अहम् ब्रह्मास्मि

अहम् ब्रह्मास्मि!


कोई कहे तुझसे भी

कि, यह तरीका है

और ऐसे जीवन जीने का

सलीखा है

यदि तेरे विचारों और कल्पना के

अश्व को कोई किसी भी परिमाण

की लगाम से बांध दे

तू उसे त्याग के अपने

आन्दोलन का प्रमाण दे।

वश में करे ले

घोर साधना से अपनी इन्द्रियों को

और तपस्या की अग्नि में

स्वाहा करदे अपनी त्रुटियों को

मना ले स्वयं से विजय

की विजय दशमी

और दहाड़ दे सब पे

अहम् ब्रह्मास्मि

अहम् ब्रह्मास्मि!

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