क्या मैं स्मारक हूँ
जो चौराहे पे पीतल
से पुता है
और इतिहास के भूले बिसरे
पन्नो से निकल के
आज कुछ कहने के प्रयास
में जुटा है?
जो है पुरानी जीत का स्तम्भ
या फिर आने वाली विजय का
प्रारंभ ?
युग पुरुष या फिर
प्राचीन सभ्यता
का चिन्ह?
मैं यह सब नहीं
मैं निरंतर बदलता वोह
गतिमय प्रतिबिम्ब हूँ
जो हर समय चक्र के
अंत में दिखता है
बुराई का बदसूरत चेहरा
और अच्छाई की सुन्दर मूरत
का भव्य मिश्रण
जो भाग्य और समय के
तराजू में तुलता है.
जो पथभ्रष्ट हो गए समाज
की मशाल है
और मानव की निरंतर
उन्नती की मिसाल है
जो रचना भी है और रचैता भी
अभिनय भी और अभिनेता भी
शिल्पी और मूरत भी
तिरिस्कृत भी है और ज़रूरत भी
पेड़ भी है और छाया भी
स्रोत भी है और काया भी
मैं इतिहास का व्हो स्वर्ण पन्ना हूँ
जो वर्त्तमान में लिखा जा रहा है
और भविष्य की ओर बाँहें फैला रहा है।
यह चिंतन इसलिए क्युंकि
प्रतिपल मैं यह भांप रहा हूँ
कि मैं अब सोया नहीं , जाग रहा हूँ
मेरे जागने से यह जग जागेगा
मेरे तेज से अँधेरा दूर भागेगा
मूक आत्माएं बोल उठेंगी
उम्मीद का चेहरा खिल उठेगा
हर ओर मेरे आवेग से
कुछ कर गुजरने का तूफ़ान उठेगा
और यह कहेगा
वो था, वोह है और रहेगा
तुम भी देखो, तुम भी जागो
वो जागा था, फिर भागा था
तुम भी जागो और उसी गति से
भागो
और दूर क्षितिज पे अपने
विश्वास का परचम बांधो
विजय का परचम बांधो
उठान का परचम बांधो!
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