कोई तो शक्ति है जिसका
हल्का हल्का सा होता आभास
जब सब कड़वा हो जाता
तब कहीं से आती अमृत की मिठास
जब स्थिर, गतिहीन हो जीवन
और रुक जाता हर प्रयास
तब चक्र हल्का सा घूमता और कहता
मैं हूँ … पथिक….. न हो उदास
न हटे लक्ष्य से दृष्ठी तेरी
तुझ जैसों से ही बनी है श्रृष्टि मेरी
आँखे बंद कर और बस पुकार
मैं हूँ… पथिक….चाहे हूँ निराकार
मैं हूँ!
इश्वर, विधाता और भगवान्
ऐसे भिन्न भिन्न उसके नाम
न देवल, न गिरजा, न मस्जिद का वासी
प्रकट हो जाता , बस पुकार लगाओ ज़रा सी
तुम उसको भूल भी जाओ
न तीर्थ, न मंदिर, न अर्घ्य चढाओ
चाहे उससे दूर भागे तुम्हारे खडाऊ
परन्तु वोह सर्वत्र है
वोह तुम्हे स्वयं पुकार लगाता
तुम्हारे ह्रदय मैं धम्म से चिल्लाता
मैं हूँ…पथिक…क्यूँ घबराता
मैं हूँ!
यह स्पर्श हर किसी का होता मौलिक
और वोह पल होता अद्भुत, दैविक
आँखें चौंधियाती, ह्रदय बोलता
चित्त शांत पर तेज़ गति से लहू दौड़ता
मानो ब्रह्मा ज्ञान हो गया हो
एक पल में जीवन बदल गया हो
सारे बंद द्वार सरपट खुलते
सारे ग़म चुटकी में घुलते
उस एक पल में मानो
जैसे ब्रह्माण्ड हो जाता मुट्ठी में
तारे होते जेब में सारे
सारे अंश मिल जाते गुत्थी के
आकाशवाणी होती और फिर सन्नाटा
मैं हूँ….पथिक….क्यूँ नहीं खिलखिलाता
मैं हूँ।
तू बस अपना काम करा चल
ना भी मिले जब मुश्किल का हल
सर्वत्र है वोह हरदम, प्रतिपल
बीता, आज और आने वाला कल
जब होगी तुझको कठिनाई
आगे पहाड़ और पीछे खायी
जब बीच भंवर में तू खड़ा हो
और चप्पू तेरा दूर पड़ा हो
जब घायल मन हो
सब धुन्धला हो
वो केवट बनके आएगा
तेरे डरे और घबरायी काया को
स्नेह ही कम्बल उधायेगा
थके शरीर और डूबती नैय्या को
तट तक लेके जाएगा.
फिर तू अपनी राह पकड़ना
कर्म करना, उसकी राह न तकना
वो तुझे देख रहा है
तेरे हरदम साथ खड़ा है
कहने के लिए, पथिक डगमगा मत
मैं तेरी सारी पीड़ा हरलूँ
तू बस चल
मैं हूँ……
मैं हूँ……
मैं हूँ…..!!
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