कोकिला का स्वर आज क्या कहता है?
नदी का प्रवाह आज किस ओर बहता है?
एकाग्र चित्त होता था जो कभी
आज उसका ध्यान कहाँ रहता है?
आवाज़ की भटकती गूँज को
सुनने वाला , न कोई
धड़कन की ताल पे
मुस्कुराने वाला , न कोई
डर से ठंडी हो गयी पीठ
को सहलाने वाला, न कोई
और प्रतिपल भटकते जा रहे
को वापिस बुलाने वाला, न कोई!
अकेलेपन का जब अथाह सागर
दिखता है चारो ओर
सन्नाटे की गूँज जब
मचाती है शोर
घबराहट का भूचाल
जब छाती को है भेदता
और कमजोरी का ठंडा लहू
जब नसों में है रेंगता
घबरायी आँखें जब
देखती है धुंधलापन
और मृत हो जाता
अन्दर का चुलबुलापन
जब बंधे हाथ खुल न पाएं
और घुटन से सांसें निकल न पाएं
जब और घसीटने की न हो हिम्मत
और ‘उम्मीद” का ध्वज झुका हो
जीवट का मज्जा भीतर से चूस चुक्का हो
आस्था और भक्ति रुक चुकी हो
और आत्मा इस होड़ में कहीं छुप चुकी हो
तब क्या करो
कैसे करो?
कैसे उभरो
और घाव कैसे भरो?
सुन्न होने दो शरीर को
आत्मा हो जाए चुप चाप
विचारों को पनपने न दो
और न छेड़े धडकनें भी आलाप
सांसें थम जाए
और शव सामान हो जाओ
मानो मृत्यु का आभास हो।
फिर करो एकाग्र, शून्य से
जन्म दो नवीन जीवन को
ओमकार के भ्रूण से
और बो डालो बीज एक नए
सुकून से
अपने जीवन की तख्ती पे छपे
उन घावो को मिटा दो
और नयी खड़िया से रंग के
पुरानी , जीर्ण सोच और अनुभवों को चिता दो।
ऐसे चौराहे पे पुनः न खड़े रहने
का प्रण करो
और हमेशा गतिमय रहने की भरो चाबी
ताकि न हो धुंधलापन कभी
और न हो पथभ्रष्ट ज़रा भी।
इश्वर के दिए जीवन का एक बार फिर
करो आलिंगन
और इस नए जीवन के नए रूप के ज्ञान का
सभी इन्द्रियों से करो सृजन ।
तुमको यह नया जीवन
हरदम यह याद दिलाये
कि पराक्रमी हो तुम
बुद्ध हो तुम
ब्रह्म हो तुम
शिव का डमरू, उसका त्रिशूल हो तुम
अंकुर और कोख दोनों हो तुम
शक्ति का स्रोत हो तुम
मरनोप्रांत जागे हो तुम
तो अशोक हो तुम
अशोक हो तुम
अशोक हो तुम!
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