Wednesday, December 21, 2011
गुमनाम उजाले...रौशन सितारे ! Copyright ©
गुमनामी की चादर ओढ़े
मंद मंद मुस्कुराता रहा
सीने की जलन को दिया बनाता रहा
चिंगारियों ने गुमनामी में भी न छोड़ा मुझे
मैं गुमनाम उजाला ही चाहता रहा
भाग्य का कटोरा हो या किस्मत की जागीर
बादशाहत ही है मन में, चाहे जेब से हों फ़कीर
छाप लगी है माथे पे, गुमनामी उजाला ही बनेंगे
चाहे चमकते भविष्य की हो हाथों में लकीर
मुस्कराहट की कीमत नहीं होती, किसने कहा
उनसे पूछो जिनकी ज़िन्दगी खर्च हो गयी
मैंने तो गुमनामी का ही उजाला माँगा था
मुझे तो अँधेरे की खामोशी भी न मिली
उजाले, चमकदार उजाले
अन्धकार को चीरते उजाले
उजाले मंज़ूर थे मुझे पर केवल गुमनामी में
सिसकती सांसों के ताले, अकेलेपन की चाबी में
इतिहास का वह गुमनाम पन्ना बन्ने की ख्वाहिश थी
कस्तूरी , जिसे मृग लिए घूमता है अपनी नाभी में
पर मेरी जीत , किस्मत के दरबार में गुस्ताखी थी
मेरी ज़िंदगी तो उसके कोठे की साकी थी
बाँध घुंघरू , नाच नचाया उसने
क्युंकी देनदारी अभी बाकी थी
तो गुमनामी के उजाले की चाह रह गयी
इतिहास के पन्ने का गुमशुदा होना रह गया
इतनी ठोकर पड़ी जीवन में कि मैं
न चाहते हुए भी रौशन सितारा बन गया
न चाहते हुए भी रौशन सितारा बन गया
Monday, December 19, 2011
भाप Copyright ©
जब बर्फ के आगोश में धधकती ज्वाला समाई
जब सुलगते शोलों में ठंडी धारा लहराई
जब आत्मा की ठंडक में पड़ी परमात्मा की छाप
तब हुई उद्गम यह भाप
गीली, गर्म, निराकार
उबलते पानी सी गर्म,
बारिश की बूंदों सी धार
जीवन का प्रतिबिम्ब
आत्माओं का मेघ मल्हार
हिस्स हिस्स करती गूँज रही कानो में
जैसे भरत मिलाप
मेरे तेरे, तेरे मेरे
प्रेम की यह भाप
मैं धधकती अग्नी, तू शीतल पानी
मैं शोले सा उबलता, तू बर्फ सी दानी
इस मिलन से जो निकलेगी तेज़ भाप
वह होगी, शंकर की माला
रूद्र का जाप
इस भाप को निकलने दे
देने दे जीवन
पैदा होने दे बूँदें
उठने दे स्पंदन
लगाने दे मौसम को
लंबा आलाप
तेरे मेरे मिलन की जब निकलेगी भाप
इस भाप के चरित्र का ज्ञान है नहीं पर
इससे जलने के दर्द की है अनुभूति
इसकी ठंडक का भी रसपान किया है
यह किसी किसी को ही है छूती
तो भीग इस भाप में
होने दे वर्षा
इस अग्नी पे , युगों युगों से
पानी नहीं है बरसा
इस मिलन के बाद न रहेंगे कोई सवाल
न उत्तर होंगे सरल
न होंगे दुःख के शव
न होंगे सुखमय मैं और आप
न होंगे पुण्य के कमंडल
न होंगे कोई पाप
सब विलीन हो जाएगा
रह जायेगी बस यह भाप
रह जायेगी बस यह भाप
रह जायेगी बस यह भाप
Wednesday, December 14, 2011
जश्न-ए-बहारा ! Copyright ©
जब खुश रहने की कीमत चुका चुका ,
कंगाल हो गया.
तब मालूम हुआ क़ि ..
आंसू जो छलके थे..वह अमृत धारा थे...
काँधे जो झुके थे वो किसी का सहारा थे...
कमर जो टूटी वह चौड़े सीने का इशारा थे....
और वह आंसू...
जाम-ए-ज़िन्दगी...
जश्न-ए-बहारा थे
जब कोशिश कर कर थक गया था
तब मालूम हुआ क़ि
वह हार, जीत की ओर इशारा थे
वह बहते लहू की बूँदें...माथे के तिलक की धारा थे
वह ज़ख्म, शहंशाह के ताज का सितारा थे
और वह थकान
आराम-ए-बादशाह
नवाब-ए-शिकारा थे
इल्म-ए-किस्मत
ज़ख्म-ए-मोहोब्बत
खून-ए-तख़्त
यह सब....
दूर नदी को पार करके
केवल एक किनारा थे
ज़िंदगी तो लम्हों में जी जाती है
लहरों में समेटी जाती है
बाकी सब साए,
केवल तस्वीर को पूरा करती कीलें
उसे थामते, सहारा थे
ज़िंदगी..
खुशनुमा लम्हों में समेट ले ए बन्दे
यह लम्हे ही तेरी कहानी के सितारा थे
जाम-ए-ज़िन्दगी
जश्न-ए-बहारा थे
Tuesday, November 29, 2011
Come Burn with Me.!! Copyright ©
when will you understand
that the sun sets in my life when
you are not there to brighten it
when will you understand
that the night rejects me when
your facial moon refuses to shine
when will you feel the
burning desire within me which
makes everything into ashes
if its not kindled in your name
when will you fathom the deepness of my passion
that engulfs me, my being, drives me insane
black, ashes every where inside me
bleakness shrouds
the sunshine which brightens my soul
is behind these clouds
you ask me what do I possess
love for you or claiming you to make you mine
well , god's honest truth
there is a fine line
passion bellows in the heart
crawls into the deepest corners of me
and that passion is only for thee
like the Romeos of history, i have no desire
i love only like my own internal fire
masturbating souls, gratifying goals
fleeting desires, funeral pyres
power of the throne, fire flying drone
volcanic eruptions, voluptuous plans
magnanimous dreams, death's dance
frictional fury, doomsday jury
naked boldness, blunt truths
hurting candor , forbidden fruits
all feel pale, when in presence of my passion
my passion, for you my love..
but when will you understand the intensity
i must not wait for u to understand,
i must ask u to immerse , immerse in this
intoxication with me
dive into the blood vessels and streams
to drown in this intensity
intensity enough to live till eternity
more than the Juliets of history
so come, my love... and dive
let this volcano thrive
let this inferno of passion rule thrones
let our passions be palindromes
for you are me and and i am yours
only us can settle our scores...
the battling differences can melt in this fire
the unequally yoked can be yoked in this desire
you just have to close your eyes
and let yourself flow free in me
for thine is this life, and this life is thee
for thine is this life, and this life is thee!!
come burn with me
come burn with me!!
Monday, November 28, 2011
बारूद ! Copyright ©
सीने की धड़कन है या यह धमाकों का शोर है
मन के सन्नाटे में गूंजती यह कैसी भोर है
लपलपाती जीभों की लार, या फिर टूटती यह डोर है
बारूदी समां है यह, बारूद हर ओर है
मन की सुरंगों में झाँकूँ तो बारूद पाता हूँ
दिल की चिंगारी को पर मैं इस से दूर हटाता हूँ
दोनों मिल जाएँ तो , धमाका न हो जाए कहीं
मैं यह बारूद सीने में इस कदर दबाता हूँ
कब आया बारूद यह मन में , कब ऐसा उनमाद हुआ
कब मासूमियत मर गयी, कब अन्दर का इंसान, हैवान हुआ
पता भी नहीं चल पाया, कितना खुरदुरापन आया मन भीतर
कब बारूद भर गया , कब अन्दर यम दीप दान हुआ
इन्द्रधनुष के रंगों सा मन, बारूदी काला हुआ
बचपन की किलकारी , सीने का भाला हुआ
खंरोच दिया गया नटखट्पन, उधेड़ी गयी काया
सर्प रुपी ज़हरीला डंक ही है मैंने अब संभाला हुआ
डस न जाऊं किसी को, न कर जाऊं सामूहिक निषेध
ढहा न जाऊं प्रेम की इमारतें, न कर जाऊं किसी के सीने में छेद
मन में राम था मेरे, दशानन ने मन चीन लिया
बारूदी सुरंगों में भस्म न हो जाएँ मन के यह वेद
पर बारूद निकालना है , पुनः इस मृत मन को करना है जीवित
ह्रदय को चाहे होना पड़े छलनी
किसी को डसने से पहले, नीलकंठ सा करूँ विष स्वयं धारण
यह बारूदी सुरंगे अब चाहिए नहीं पलनी
उस दिन का मुझे है इंतज़ार
जिस दिन विस्फोटक सब कुछ हो जाए बेकार
मन में केवल हो प्रेम का असल और आस्था का सूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
Tuesday, November 22, 2011
मैं रसीदें नहीं रखता ~ !! Copyright ©
खरीद फरोख्त के ज़मानो में
बिकती जागीरों, बहते मयखानों में
भूत की मदिरा से भरते आज के पयमानों में
मैं रसीदें नहीं रखता
पुरानी मशालों से खाख हुए महलों में
किसी कोने में पड़े जंग लगे गहनों में
फीकी हो चली किताबों के पन्नो में
मैं रसीदें नहीं रखता
रसीदें जो,
कल के बहे रक्त और पुराने बहि खातों का प्रमाण हैं
जो बीते कल के टूटे दिलों के चकना चूर निशाँ हैं
जो कालिख पुते इतिहास का असल और उसमे बहे सूद की मिसाल हैं
मैं रसीदें नहीं रखता
इन रसीदों को फ़ेंक देने में भलाई है
पुरानी चिताओं से आज की लौ जो सबने जलाई है
जो लगे अपनी, पर हो चली पराई है
उसे संजोने में कोई बुधिमानी नहीं
वह खून की नदियाँ हैं, निर्मल पानी नहीं
रसीदें जो जेबों में पड़ी हैं उन्हें फ़ेंक दो तुम
पुराने हिसाबों से नए सपने मत बुन
पुराने सितार से कैसे बनेगी नयी धुन
फ़ेंक दो रसीदें , नहीं इनमे कोई गुण
रसीद कटवाना.. तो केवल अब भविष्य की
नयी स्याही से , नए रहस्य की
नयी उमंगें हों , नया भविष्य, नयी लकीरें
फ़ेंक दो पहले यह पुरानी रसीदें
फ़ेंक दो पहले यह पुरानी रसीदें
Thursday, November 17, 2011
ए समंदर Copyright ©
इन बुलबुलों सा मेरा मुक़द्दर,
इस रेत सी मेरी प्यास
आज बुला ले ए समंदर
आज बुला ले अपने पास
आज भिगो दे मन को मेरे
आज भिगो दे मन की ये मेरी आस
खारे पानी में नेहला दे मुझे
नमक के हक का हो एहसास
लहरों को चीरने निकला था मैं
मगर कश्ती टूटने वाली है
अब न रेत के महल सुकून देते हैं
बस बवंडर देते थोडा विश्वास
आज समां जा मुझे , ले नीले आगोश में
आज तूफ़ान भी हैं कुछ खामोश से
आज हवायों में भी बारूद है
आज बादल भी न लगते ख़ास
ए , तूफानों से कश्ती निकालने वाले
तुझे मैं क्या दुबोऊंगा
तेरी जल समाधि का कैसे बोझ ढोऊंगा
तेरा मुक़द्दर मेरे जैसा नीला हो चला
तेरी प्यास मैं क्या भिगोऊंगा
मैं तो केवल खारा पानी हूँ
तू एक सोच है, तेरी नज़र है सूर्या का प्रकाश
तो ऐसे न आ मेरे पास
बुलबुलों को ना बना मुक़द्दर
रेत को रहने दे प्यासी
हिम्मत रख ज़रा सी
मैं समंदर, तुझसे आज एक लेता हूँ वादा
जीवन न रख अपना सादा
लहरों से जूझ
गुत्थियों को बूझ
मेरे नीलेपन की ओढ़ चादर
इस नमक का कर थोडा आदर
निकाल कश्ती एक बार फिर
निकल तूफानों से लड़ने
मैं अथाह सागर , तुझे प्रणाम करता हूँ
तेरी हिम्मत के आगे सर रखता हूँ
निकल फिरसे कुछ कर गुजरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
Monday, November 14, 2011
जान लेना~~~ !!! Copyright (c)
तेरी हिम्मत का चर्चा जब गैर की महफ़िल में हो
जान लेना की दुनिया तेरे कदमो में है
तेरी लौ से रौशन हो जब हर दिया
जान लेना की तू रौशनी ही है
तेरे बोल जब गुनगुना उठे दुश्मन
जान लेना की वोह शागिर्दी में है
तेरी साँसों से तूफ़ान इधर उधर होने लगे जब
जान लेना तेरी साँसों में बदलाव की ताक़त सी है
तेरी मिलकियत में जब औरों को पनाह मिले
तो जान लेना क़ि तू ऊंची बादशाहत में है
तेरी जागीर से जब दुनिया नहाए
तो जान लेना ज़िंदगी देना तेरी फितरत में है
कर दे जो तेरे नाम पे कोई और जान निसार
जान लेना यह कुर्बानी तेरी रग रग में है
डर लग्न बंद हो जब जहाँ को , जब तू बोलने लगे
जान फूंकना , मान लेना, तब तेरी तबियत में है
क़त्ल हो चली है कईयों की नीयत , तुझसे जो टकराए हैं
जान लेना, हारना तुझसे , उन सबकी फितरत में है
घाव देता है जहाँ तो देने दे ए बादशाह
घाव लेके मरहम लगाना तेरी ही बादशाहत में है
जब नाम तेरा औरों के लबों पे माला के जैसा बन पड़े
मान लेना तेरे लहू के हर कतरे की, दुनिया ज़रुरत में है
जिस ओर तू चले, उस ओर भीड़ चले तेरे पीछे
मान लेना सब का सर, तब तेरे ही सजदे में है
तेरी हिम्मत का चर्चा जब गैर की महफ़िल में हो
जान लेना क़ि दुनिया तेरे कदमो में है
तेरी हिम्मत का चर्चा जब गैर की महफ़िल में हो
जान लेना क़ि दुनिया तेरे कदमो में है
Thursday, November 10, 2011
ठप्पा ! Copyright ©
मापदंड, तराज़ू, कटघड़े
सब कर देते हैं एक बार तो खड़े
किसी की सुई से नापे जाते
किसी के कांटे पे होते निर्भर
मुक़द्दमा चला जाती दुनिया
नैतिकता होती नाप तोल कर
ठप्पा लगा देते दुनिया वाले
चरित्र और नीयत पर
कोई चरण छूके चले जाता
कोई लगाता दाग, कोई धब्बा
और लग जाता हम तुम पे
किसी और के मापदंड का ठप्पा
किसी की कचेहरी, किसी का दरबार
किसी और की लटकी तेरे ऊपर तलवार
किसी और का न्याय, किसी और के नियम
कोई और बन जाता तेरी सरकार
तराज़ू में तुल तुल तू कब तक लटका रहेगा
कब तक दरबारों में भटकता रहेगा
हर कोई अपना नज़रिया लेके पैदा होता
कब तक तू इनकी सूली चढ़ेगा
अपना न्यायाधीश खुद बन
खुद कर नैतिकता और नीयत का फैसला
हो जा खुद ही कचेहरी, खुद ही मुकद्दमा
झुके सर केवल उसके आगे तेरा रब्बा
न लगाने दे किसी और को
तेरे ऊपर उनका ठप्पा
कभी धर्म ने लाठी मारी तुझपे
कभी समाज ने किया प्रहार
कभी परिवार ने डांटा तुझको
कभी दिया सबने सिंघासन से तुझे उतार
और तू घबराया, ग्लानि भरली किसी और के कहने से
किसी और का नज़रिया मान कर तूने कीमत चुकाई
अपने आंसू की धरा बहने से
समय बदला और तुझपे लगे ठप्पे का रंग उतर गया
फिर सबने कमज़ोर मानुष को कटघड़े में फिर खड़ा किया
रोज़ सुनवाई, रोज़ कचेहरी , रोज़ तराजू से तोलम तोल
तेरी परछाई भी गिरवी हो गयी
पिया जो तूने इन सबका विषैला घोल
अरे उठ खड़ा हो, और देख अपने भीतर
जिस कमज़ोरी की वजह से तुझे इन्होने अपना निशाना बनाया था
उस कमजोरी को बहार फ़ेंक और
उठा तलवार , जिस जिस ने तुजेह ललकारा था
विशवास तेरा बोलेगा और आत्मा तेरी खिल उठेगी
जब तेरे गांडीव पे तेरे 'स्व' की प्रत्यंचा चढ़ेगी
तब मुक़द्दमा ख़ारिज होके आएगा तेरे पास
तेरे कर्म, तेरी सजा, बस तेरा है होगा फिर कटघड़ा
तू सलामी देगा, और तू ही लगाएगा बस अपना ठप्पा
तू सलामी देगा, और तू ही लगाएगा बस अपना ठप्पा!
Tuesday, November 8, 2011
थूक,थूक मत चाट ! Copyright ©
फल पाने के चक्कर में
स्वाभिमान के घोड़े पे सवार
लगाम थमा देते हैं हम काम को
चाहे स्वाभिमान का घोड़ा डगमगाए
चाहे हम फल पाने के लिए नीलाम हों
अश्वा को दौड़ा दौड़ा थका देते हैं हम इतना
क़ि स्वाभिमान का घायल घोडा सह नहीं सकता जितना
फिर उसकी आहुति देके , उतारते एक दिन , उसे मृत्यु के घाट
चाहे उसकी भक्ती को खो दें हम
अपना नारा बस....थूक थूक के चाट
जब तिरिस्कार कर देते किसी लत, किसी कालिख सनी आदत को
ताकि उसकी आधीनता रहित ज़िंदगी, ही अपनी ताक़त हो
तो फिर क्यूँ अपनी कायरता का हल हम अपने जीवन में जोतें फिर
अपनी इन्द्रियों को वश में क्यूँ न करते, जिससे अपना उद्धार हो
अपने स्वाभिमान की गठरी चंद सिक्को या कुर्सी को क्यूँ देते बेच
जब उस स्वाभिमान की शय्या, स्वाध्याय का बिछौना हो सकता है सेज
पर फिर भी क्यूँ कर देते अपनी आत्मा का सौदा, समझी नहीं यह बात
अपना तो नारा हरदम हो जाता....बस थूक थूक के चाट
अरे ज़िल्लत सहने का शौक है इतना तो मानुष जीवन क्यूँ स्वीकारा
आत्मा मार के क्यूँ तुमने परमात्मा को पुकारा
अन्याय के आगे सीना चौड़ा करने में जो स्वाद था
तुमने अपने पीठ दिखाके, क्यूँ स्वाभिमान को जग के कोठे पे उतारा
नेता, अभिनेता, प्रतिबिम्ब हैं हम तुम की कमज़ोरी का
रीड की हड्डी हुए बिना, बिना बात की सीना ज़ोरी का
रेंगते सांप बन चुके सब लोग, छाती तानना कहाँ गया
बाज़ार में नीलम करके हमने, ज़मीर को बाजारू बना दिया
फिर रोते हैं तुम और मैं...क्यूँ नहीं देता इश्वर हमारा साथ
कैसा देगा वो भी जब हम रहे ...थूक थूक के चाट
थूक- चाट दरबारी मत कर न बे पेंदे का लोटा मत बन
जिधर स्वार्थ को मालिश मिलती उस ओर न जा, न छोटा बन
स्वाभिमान रहेगा तेरे भीतर तो वो सोना बनके चमकेगा
तेरे सिद्धांतों के कंधे पे ही कल का समाज संभलेगा
तू देखेगा एक इश्वर रुपी मानुष को दर्पण में हर दिन
मुस्कुरा पड़ेगी तेरी काया, आसमान देने देगा तारे चुन
मत कर अपनी आत्मा पे प्रहार मत कर उसपे ऐसा आघात
पीठ सीधी कर, सीना चौड़ा.....थूक थूक मत चाट
पीठ सीधी कर, सीना चौड़ा ....थूक थूक मत चाट
पीठ सीधी कर, सीना चौड़ा.... थूक थूक मत चाट
Monday, November 7, 2011
लौ ! Copyright ©
एक रात मोमबत्ती को देख देख
ऐसे ही मन में ख्याल आया
कैसे रौशन हो चली थी
काली, रात की घनघोर काया
परछाइयां बन रही थी
और था काला साया
पर जैसे ही चिंगारी भड़की
और दीप जलाया
एक विचार मन में अनायास ही आया
जो रौशन कर रही लौ थी
वो धधकती हुई उम्मीद का प्रमाण थी
बस छूटने वाले तीर की कमान थी
फिर उस बत्ती से मैंने दूजे का मूह सुलगाया
उसे भी उम्मीद का स्वाद चखाया
उस अनुभूति से एक और एहसास हुआ
दूजो को बांटने से बुझता नहीं दिया
बल्कि रौशन हो उठती है कायनात
एक की रौशनी से दूजा भी जिया
ज्ञान की लौ बांटने से है बढ़ती
फिर वो आग बनके हर कोने में है धधकती
दूजे की ज्योत जलाने से केवल बढ़ती है शक्ती
एक हो तो नमन, अनेक हो तो भक्ती
तो जब लौ नहीं शर्माती किसी दूजे को रौशन करने में
दूजी बाती में उष्ण गर्मी भरने में
तो मैं क्यूँ शरमाऊँ
क्यूँ अपने ज्ञान का दीपक
अपने मन में ही बस जलाऊँ
क्यूँ न औरों की ज्योत जलाऊँ
और इस अन्धकार को क्यूँ न दूर भगाऊँ
मेरी लौ से दूजी जले तो हम, दो हो जायेंगे
और धीरे धीरे करते सौ हो जायेंगे
फिर जब यह रौशनी सूरज का रूप लेगी
तम की गहरी चादर, थोड़ी तो हटेगी
तो अपनी लौ को जलाओ पहले
और दूजो में बांटो
और ज्ञान, हौसले और प्रेम की रौशनी
पूरे जग में बांटों
चिंगारी मैं देता हूँ
तुम बस स्वीकार करो
उस लौ से तुम भी सारे जग का उद्धार करो
फिर "मैं" से "हम दोनों",
"हम दोनों" से "हम सब" हो जायेगे
फिर "हम" भी.. प्रचंड , पवित्र, अग्नि कहलायेंगे
फिर" हम" भी.. प्रचंड , पवित्र, अग्नि कहलायेंगे
एक लौ से पूरा संसार जगमगायेंगे
Friday, November 4, 2011
क्या आटा..... क्या रेत.... Copyright ©
दाने छोटे छोटे , पर कितने भिन्न भिन्न
महल बनाये कोई, सियासतें चलाये कोई
भाई ,भाई को दाने दाने के लिए मार गिराए
इन दानो की वजह से न जाने कितनी लाशें सोयी
इतिहास बने हैं इन दोनों के दानो से
कालिख निकली है वर्तमान की खानों से
भविष्य बना है इन दानो से
आटा और रेत ही खरीदे - बेचे, इंसानो को इंसानो से
चक्की में पिस पिस के गेंहूँ किस्मत कईयों की बना जाता है
और बड़े से बड़ा परबत, घिस घिस रेत हो जाता है
इस आटे के पीछे भैया कितने ही नीलाम हुए
रेत के महल बना बना कई मृत्यु की शय्या के मेहमान हुए
आटे के लिए गिरी सियासत, इतिहास ने छाननी से चंद दानो को छाना
रेत के महल बने भूत में जो, उन्हें वर्त्तमान ने खँडहर माना
क्या अंतर फिर इनमे , क्या है इनका सार
एक काया का निर्माण करे , दूजा ख़त्म हुआ गया थार
इन दानों को देखो ज़रा तुम गौर से
न जाने गुज़रे हैं यह कैसे कैसे दौर से
इन दोनों की खातिर कितनो ने बलिदान दिया
गोली खायी , ज़िल्लत झेली, खून का घूँट पिया
कहते हैं कण कण में भगवान् हैं
लगता तो ऐसा है अब, दाने दाने में शैतान है
जो लालच, घ्रिना, द्वेष मानुष में जगाता है
भई को भई से लडवा के, भाभी को दाव पे लगाता है
एक दाने को खाके दूजा जाना ही जब होना है
उसके लिए क्यूँ अपना ज़मीर खोना है
आटा और रेत के लिए, लगती बोली लगते दाम
मानव अपना ज़मीर बेचके हो जाता नीलाम
और फिर कहता जग यह है
दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम
इन दानों के पीछे अपनी आत्मा न नीलम करो
इन शैतानी दानों पे न अपने जीवन की शाम करो
यह दाने तो तुमको खरीदने की ताक़त रखते हैं
इनके पीछे न ईश के दिए जीवन को बदनाम करो
बहुत भेंटें हैं दी गयी , उस मौला के हाथों तुमको
क्या नंगा, क्या भूखा , क्या राजा क्या सेठ
अपनाओ और जो मिला है, अपनाओ और कोई भेंट
इसके पीछे भागो मत
क्या है आटा , क्या है यह रेत
Thursday, November 3, 2011
रब ने पिला दी थोड़ी ! Copyright ©
जब घबराया मन था और सारे कोने थे चित्त
जब प्रेम की अनुभूति न था, थे हम मात्र निमित्त
जब पिता का प्यार दूर था, न थी कानो में माँ की लोरी
पुकारा उसको और उस रब ने मुझे पिला दी थोड़ी
कौतुहल का तूफ़ान छाती में जब तब उबला था
जब मन ने हीरे के बदले केवल कोयला उगला था
जब विश्वास न था, और हमने उम्मीद खो दी
पुकारा उसको और उस रब ने मुझे पिला दी थोड़ी
मित्रों का साथ जब छूटा, छूटा बचपन का साथ
जब जेबों में छेद थे, और धेला भर भी न था हाथ
जब ढूंढ रहा था लक्ष्य को और ,सारी किस्मत रो दी
पुकारा उसको और उस रब ने मुझे पिला दी थोड़ी
पीते पीता, मन मदमस्त हाथी सा डोला
रगों में बारूद मिला और हाथों में हथगोला
चिगारी बनी मेरी सोच और कलम बन बैठी गोली
इस सबके पीछे वो ही थी जो उसने पिलाई थी थोड़ी
फिर एक दिन सोचा मैंने क्या पिलाया होगा
कैसे नशे में चूर करके , क्या समझाया होगा
फिर निकली आवाज़ भीतर से , जन्मायी तुझमे उसने छोटी सी विश्वास की घोड़ी
लगाम थामई तुझको और, पिला दी तुझको थोड़ी
बस यह घुट्टी, यह मदिरा, यह मादकता बनी रहे
मेरे विचारों की नदिया में पूरी दुनिया बही रहे
हरदम शब्दों का रसास्वादन हो , बने कवि ,पाठक की जोड़ी
आओ मैं खोलूं यह मयखाना, तुम भी पीलो थोड़ी!
Wednesday, November 2, 2011
चश्मदीद गवाह Copyright ©
सुनी सुनायी बातों पे
सच्चाई की बरसात पे
इतिहास के छातों पे
यकीन कहाँ मुझे
मान कर चलता नहीं मैं
जान कर चलता रहा
किस्से कहानी के 'सच'
को मानू कैसे,
भूत की उंगली नहीं पकड़ता मैं
बहने देता हूँ आज के सत्य को
मैं धारा प्रवाह
मैं लतीफों के पन्नो में डूबना नहीं चाहता
मैं तो होना चाहता हूँ हर पल का
चश्मदीद गवाह
इतिहास रचा गया और स्वर्ण अक्षरों में नाम अंकित हुआ
माना तुमने, पोथियों में 'सच' लिखा हुआ
जांचा नहीं और 'महापुरुष', 'महान' जैसे शब्दों का
निर्माण किया
और परखे बिना , न कोई प्रमाण लिया
कैसे?
कैसे हर बात जो घुट्टी बन के तुम्हे पिलाई गयी
उसे तुमने स्वीकार किया
किसी पोथी को सच बतलाने का कैसे तुमने अधिकार दिया
मैं कैसे चल पाऊं ऐसे अँधेरी , रहस्यमयी राह
मैं तो होना चाहता, इतिहास के हर पल का
चश्मदीद गवाह
इतिहास जीतने वाले रचते हैं,
जो आधा सच सुनना चाहते हैं , वो ही इसे महान कहते हैं
जो पूरा सच सुनने के हिम्मत रखते हैं
उन्हें उद्दंड, क्रांतिकारी लोग कह पड़ते हैं
पर आधे सच की कोमलता से तो पूरे सच का
कड़वाहट ही मुझे रास आती है
कड़वाहट में कम से कम झूट की
तो नहीं बास आती है
फैसला चुनाव से होना चाहिए
भ्रमित करने वाले डर से नहीं
इसीलिए मुझसे नहीं सुननी किसी की वाह वाह
चाहे भयावह ही सच हो इतिहास का
मुझे तो होना है हर पल का चश्मदीद गवाह
शुत्रुमुर्ग की भांति जो मिटटी में सर धंसे हैं तेरे मेरे
उसे निकालें हम और विवेक का प्रयोग करे
हर कही बात सच नहीं होती,
हर पोथी, पुस्तक, इतिहास के घ्रिनास्पद सच के
पाप नहीं धोती
मान मान के पीढ़ी पीढ़ी कठोर सच को नाकारने वालों
सत्य को बिना जांचे, इतिहास की गरिमा को स्वीकारने वालों
खोलो आँखे , रहो प्यासे, सत्य को परखने की रखो चाह
इतिहास ऐसे ही मान न लो, बनो उसके चश्मदीद गवाह
Tuesday, November 1, 2011
क्या है ~ Copyright ©
हवा के झोंकों के संग बहते पत्ते से पूछो, दिशाहीनता क्या है
नए प्रसफुठित अंकुर से पूछो, नवीनता क्या है
शब्दकोष में तो बहुत शब्द अंकित हैं, उनकी अनुभूति कहाँ
कीचड़ में खिले कमल से पूछो, शालीनता क्या है
जंजीरों, सलाखों में बंधे कैदी से पूछो, घुटन क्या है
बारूदी सुरंगों से गुज़रते सैनिकों से पूछो, घबराहट क्या है
नशे की लत में जकड़े मानुष से पूछो, आधीनता क्या है
गगन में उड़ते पंची से पूछो, स्वाधीनता क्या है
बुलबुलों का आकर लेते पानी से पूछो, अल्पायु क्या है
सूखे बंजर खेतों से पूछो, माँ सरयू क्या है
निरुप माटी को आकर देते कुम्हार से पूछो, मौलिकता क्या है
मद्धम चाल चलते, जीवन समेटते, कछुए से पूछो, दीर्घायु क्या है
तूफानों को चीर के निकली नय्या से पूछो, जीना क्या है
किसी की आँखों में डूबे प्रेमी से पूछो, पीना क्या है
बेटे की मुस्कान के लिए , लहू सा बहाते, पिता से पूछो, पसीना क्या है
उधड़े रिश्तों को मरहम लगाती माँ से पूछो, सीना क्या है
शब्द सब जानते हैं, रोज़ प्रयोग कर जाते हैं
जो दिखता है उसे ही मान जाते हैं
हर ओर कायनात, को परख के, जीवन के स्वाद को चख के
कवि जो समाज की कालिख की स्याही में कलम डुबोता है,
उस कवि से पूछो , मार्ग क्या है
उस कवि से पूछो, दिशा क्या है
उस से पूछो, "हम" क्या हैं!!
नए प्रसफुठित अंकुर से पूछो, नवीनता क्या है
शब्दकोष में तो बहुत शब्द अंकित हैं, उनकी अनुभूति कहाँ
कीचड़ में खिले कमल से पूछो, शालीनता क्या है
जंजीरों, सलाखों में बंधे कैदी से पूछो, घुटन क्या है
बारूदी सुरंगों से गुज़रते सैनिकों से पूछो, घबराहट क्या है
नशे की लत में जकड़े मानुष से पूछो, आधीनता क्या है
गगन में उड़ते पंची से पूछो, स्वाधीनता क्या है
बुलबुलों का आकर लेते पानी से पूछो, अल्पायु क्या है
सूखे बंजर खेतों से पूछो, माँ सरयू क्या है
निरुप माटी को आकर देते कुम्हार से पूछो, मौलिकता क्या है
मद्धम चाल चलते, जीवन समेटते, कछुए से पूछो, दीर्घायु क्या है
तूफानों को चीर के निकली नय्या से पूछो, जीना क्या है
किसी की आँखों में डूबे प्रेमी से पूछो, पीना क्या है
बेटे की मुस्कान के लिए , लहू सा बहाते, पिता से पूछो, पसीना क्या है
उधड़े रिश्तों को मरहम लगाती माँ से पूछो, सीना क्या है
शब्द सब जानते हैं, रोज़ प्रयोग कर जाते हैं
जो दिखता है उसे ही मान जाते हैं
हर ओर कायनात, को परख के, जीवन के स्वाद को चख के
कवि जो समाज की कालिख की स्याही में कलम डुबोता है,
उस कवि से पूछो , मार्ग क्या है
उस कवि से पूछो, दिशा क्या है
उस से पूछो, "हम" क्या हैं!!
Friday, October 28, 2011
विस्फोट ! Copyright ©
समाज में गुनाह इतने पनपे हैं न जाने क्या हुआ है
हर कोने में मानवता का सडा लोथडा तिरिस्क्रित पड़ा हा
हर ओर नज़र घुमाओ तो चोट ही चोट है
यह कोई इत्तेफाक नहीं यह तो कलयुग का विस्फोट है
और कवि बनके मैंने चिंगारी भड़काई तो विद्रोही कहलाया गया
इन पापों के महलों के दरबार में मेरा मुक़द्दमा चलाया गया
" कवि तू क्यूँ अपने हाथ इन सब में डुबोता है,
क्यूँ तू शब्दों के बाणों से दे रहा हमारी छाती पे चोट
तुझे नेहला देंगे भौतिक सुखों में, होने दे यह विस्फोट"
इस विस्फोट की जड़ को कैसे साफ़ करूँ , कैसे नयी स्वच्छ पौध की खाद बनू
पापाचार से गठरी तो इन्हें जागीर में मिलने वाली है
कैसे इस गठरी को इनका सत्य होने से पहले बर्बाद करूँ
मेरी नियत में नहीं खोट, पर रोकूँ कैसे यह विस्फोट
प्रकृति का उद्गम भी हुआ था विस्फोट से
पर यह विस्फोट तो पैदा हुआ है आत्मा की चोट से
कोने में पहुंचाई बिल्लियों ने नोचना प्रारंभ जो किया
यह विस्फोट बीमारी फैलाता गर्भ हो गया
जड़ इसकी है कमजोरी जो युगों पहले जन्मी थी
कमजोरों की लाशों पे इसकी नीव पनपी थी
अब वो कमजोरी विस्फोट रुपी फूट रही
और मानवता मानव से धीरे धीरे छूट रही
मैं रोकूँ इसको और रोकूंगा मैं यह विस्फोट
चाहे हो जाए मेरी काया पे ही इसकी चोट
तुम भी रोको इस समाज में फैले विस्फोटक पदार्थ को
और एक नए भविष्य, नए जीवन के तुम भी पार्थ हो
जो भी होगा आने वाला भविष्य वो बस ऐसा न हो
जो दिखलाए तुम्हारे भीतर का खोट
बस हो जीवनदायी, कालिख रहित विस्फोट!
Thursday, October 27, 2011
बरगद Copyright ©
दक्षिणामूर्ति कल्पवृक्ष में विराजे शंकर
जटाएं धरती की ओर, मूल आकाश की ओर, पत्ते वेदंकर
कृष्ण कहे जो वट-वृक्ष जाने वो जाना वेद महत्त्व
इसी की छाया में सिध्हार्थ रचा बोधी सत्त्व
बरगद फैलाये अपनी बाहें , युगों युगों तक
जड़ में इसके ज्ञान बसा,पत्ते पत्ते में वेद
रखदे अपनी जटाएं धरा पे जैसे हो विराट अंगद
युगों युगों का इसका जीवन, यह अमृत पान कराता बरगद
समय की चादर को चीरती इसकी बाहें
स्थिरता, धैर्य,बाहूबल,सद्भावना फैलाती इसके निगाहें
पितृ-रुपी इसकी छाया
मात्र प्रेम सी इसकी काया
बुद्ध इसके नीचे बना बुद्ध
इसकी छाया है सुधा से शुद्ध
फल देना इसका ध्येह न हो चाहे
पर हर किसी को गले लगाता बाहें फलिये
बरगद जैसा बन पाऊं मैं
इसकी जड़ो के जैसे हो मेरा मन
इसके तने के जैसे काया मेरी
औरों की छाँव बने मेरा तन
आना चाहें सब मेरी संगत
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
दूर से देखो कैसे ऋषि रूप में है विराजमान
वेद ज्ञान का सितार छेड़े, गाये शास्त्र गान
ध्यान मग्न , हरी छाल ओढ़े , साधू सा रूप
अनेक साधना, सिद्दी संजोये, न जाने कितना है ज्ञान
कभी चरित्र है इसका प्रशांत सा, गहरा , शांत
कभी है अथाह आसमान सा, जैसे सितारों का प्रांत
जहाँ जम जाए , स्तम्भ बन जाए , छाया फैलाए
हो जीवन मेरा भी ऐसा, छायादार, विराट,
जैसे हो साधू, जैसे हो सम्राट
सबको हो इच्छा आने मेरी सांगत
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
Wednesday, October 26, 2011
मुझे तो कोई मुबारकबाद नहीं देता~ Copyright ©
मुझे तो कोई मुबारकबाद नहीं देता
मैं भी तो जिंदा रहने की पूरी कोशिश में हूँ
मेरी तो कोई पीठ नहीं थपथपाता
मैं भी तो मोहताजी साँसों की गर्दिश में हूँ
सांसें एक दिन थम जायेंगी, रगें यूँ ही जम जायेंगी
एक तरफ़ा प्यार ही बस कर पाएंगी
इन साँसों को कोई क्यूँ नहीं समझता
जो कहती हैं " मैं भी तो जिस्मानी बंदिश में हूँ"
मेरी घबराई रूह को कोई क्यूँ नहीं गर्मी देता
मैं भी तो एक पल को जी सकूँ
क्यूँ कोई इसे गोद में नहीं सहला जाता
मैं भी तो मासूम बिलकते बच्चे सा हूँ
खड़ा करके मैदान-ए- जंग में मुझसे पूछता है मुक़द्दर
लाशों का मंज़र पसंद है , या खून की खुशबू
और मैं बस इतना बोल पाता हूँ हर बार
मैं तो बस बिसातों के शिकस्त खाए बादशाहों सा हूँ
हवाओं ने कैंची पकड़ी है हाथो में , मेरी उड़ान के पर कुतरने
और मैं पूछता हूँ , मैं ही, बस मैं ही क्यूँ
हवाएं भी रो पड़ती हैं और कह देती हैं
तू उड़के क्या करेगा, तू आसमान को क्या छुएगा, तू तो बस धरती को छू...
मुबारकबाद न दे कोई, न लगाए गले से ज़िंदगी
न बहाए प्यार की कभी एक तरफ़ा ही नदी
मैं तो ठंडी पीठ की ठिठुराहट से ही बनाऊंगा गर्मी
मैं तो मौत की चादर ओढ़े , ज़िंदगी की महफ़िल में हूँ
मुझे तो कोई मुबारकबाद नहीं देता
मैं भी तो जिंदा रहने की पूरी कोशिश में हूँ
मेरी तो कोई पीठ नहीं थपथपाता
मैं भी तो मोहताजी साँसों की गर्दिश में हूँ
Tuesday, October 25, 2011
शुभ दीपावली Copyright ©
आज जलाना रावण को है
राम चन्द्र बन जाना है
द्वेष, घ्रिना और कालिख को मन से
राख में मिलाना है
सारी कालिख धो देनी है
सारा पाप मिटाना है
मन की लंका के कोने कोने में
आज राम राज्य बसाना है
अहंकार को आज देनी है आहुति
आलस्य को आज भस्म कर जाना है
मन मंदिर में दीप जगमगा उठे
ऐसा अनुपम आज बनाना है
सारे कौतुहल , सारी चिंता, सारे कीट पतंगों को ,मन के
आज स्वाहा कर जाना है
जो लंकेश बसा है मन में
उसे आज राम बनाना है
आकाश में टिमटिमाने से पहले
मन में आज टिमटिमाना है
बहार प्रसाद बांटने से पहले
आज भीतर भोग लगाना है
मन के दीपक की उष्ण गर्मी से
आज पूरा संसार सजाना है
राम राज्य का बसेरा करना
आज अयोध्या मन में ही बसाना है
सारे जग के विष को आज
नीलकंठ सा गले में समां जाना है
भेद भाव को भूल भूल के
मानुष को गले लगाना है
आज कामना यह ही केवल
मिट जाएँ, काम, क्रोध , मोह ,लोभ की भावनाएं
आज "जगे" हुए अनुपम की ओर से,
सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं
सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं
दीपावली की शुभकामनाएं.
Thursday, October 20, 2011
समझो तो ~ Copyright ©
मेरे बहते लहू के रंग में रंग जाए यह धरती तो
मेरे आंसूं के सैलाबों से यह गंगा भारती तो
मेरे अन्दर जो बहती है , जो सब सैलाब सहती है
जो समझो तो अमृत धरा , जो ना समझो तो पानी है
लब जो मेरे गीत गाते हैं, जो तेरा नाम जप जाते हैं
जो तेरे ही प्रेम का गान हरदम गुनगुनाते हैं
यह सारे सुर, ह्रदय के तार , तेरे प्रेम का संगम है
जो समझो तो तरन्नुम है, जो ना समझो तो गाली बन जाते हैं
बहुतों ने मेरी कविता की निंदा की, सराहा भी
किसी ने गाली दी, किसे ने इसे बे-इन्तेहा चाहा भी
मेरे बोल हर किसी के दिल तक पहुंचे येही इच्छा है
जो समझो तो मोहोब्बत है, जो न समझो तो रवानी है
जो गीता ने था समझाया , वो ही मैंने है दोहराया
जो कुरान-ए-पाक़ ने था फरमाया, वो मैंने भी है बतलाया
मोहोबात हो सभी लोगों में,मेरा यह ही डंका है
जो समझे तो आज़ादी है, जो ना समझे तो दंगा है!
जीवन की बिसातों पे , प्यादे मैंने भी रखे
कभी हराया भी, कभी कभी हार के स्वाद भी चखे
इन बिसातों के प्यादे होगे, क़ि होगे बादशाह कहीं के तुम
समझो तो खिलाड़ी हो, जो ना समझो खाओगे बस धक्के
मैं वो ही करता हूँ, जो मेरे मन को भाता है
सीख जाऊं सब कुछ मैं, चाहे अभी ना आता है
आगे बढ़ना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है अब
जो समझो तो तुम्हारा फायदा, नहीं तो बस घाटा ही घाटा है
कवि की बात पे ध्यान देना हरदम मेरे प्यारों
वो अपनी ही पीड़ा को शब्दों में पिरोता है
तुम्हे राह दिखा जाए, चाहे खुद को खोता है
तुम्हे दर्शन करा जाएगा वो तुम्हे अमृत चखा जाएगा
जो समझो तो जागोगे, नहीं तो जग तो वैसे भी सोता है
Wednesday, October 19, 2011
शर्त Copyright © .
जैसे ही होश संभाला,गरम खून यौवन का खौल उठा
अपनी शर्तों पे जीने का तूफ़ान,बाजुओं में दौड़ पड़ा
शर्त लगी थी ज़िंदगी से, न जाने इसे कौन जीतेगा
ज़िंदगी मेरी जागीर बनेगी, क़ि मेरा साया इसके कोठे पे बीतेगा
उम्र की जंजीरों ने मेरे सपनो को बाँधा था
चाहे मैंने अथाह आसमान की ओर ही निशाना क्यूँ न साधा था
उमंगो के गुब्बारे फूले न थे अभी तक
क्युंकी तजुर्बे का ही बस रह गया कांधा था
शर्त लगाई मैंने ज़िंदगी से और हाथ में था मुफलिस
दाव पे लगा था सब और समय रहा था पत्ते पीस
हार के डर से मुफलिस पे बाज़ी न लगायी सोचा तो जीत नहीं पाउँगा
पर हर बार हार से मिला हल्का सा डर, उठी हल्की सी टीस
ज़िन्दगी और किस्मत का समय था और मैं हारा
फिर कुछ सिक्के जोड़े और फिर हिम्मत का था सहारा
फिर बाज़ी लगी , फिर शर्त लगाई मैंने
फिर एक दिन किस्मत हारी, और बही जीत की धारा
शर्त लगाओ...ज़िन्दगी से, चलो तलवार की धार पे
जीतोगे तो हो ही तुम, पर न घबराओ हार से
जीत हार किस्मत नहीं, कर्म निश्चित करते हैं
हिम्मत भर लो, गहरी सांस लो और चिल्ला दो पूरी दहाड़ से
किस्मत तुम्हारे कदमो पे रेंगने के लिए ही है
बस उसे हराना तुम्हारा काम
शर्त ज़िन्दगी , किस्मत, काल से नहीं.... शर्त है खुद से
जाओ, लगाओ शर्त, और भरलो अपने जाम
Tuesday, October 18, 2011
सही सवाल !!! Copyright ©
सवाल पानी का नहीं...प्यास का है
सवाल मंजिल का नहीं...विश्वास का है
मंजिलें तो उतनी ही दूर हैं जितनी हम चाहते हैं
सवाल वहां पहुँचने का नहीं....प्रयास का है
सवाल रिश्तों का नहीं.....उन्हें निभाने का है
सवाल दोस्ती का नहीं.. मर मिट जाने का है
मोहोब्बत में निस्त-ए-नाबूत हो जाते दिल को पूछो
सवाल प्रेमिका का नहीं..उसपे दिल धड्काने का है
सवाल मुश्किलों का नहीं...शौर्य का है
सवाल तूफ़ान का नहीं...थमने के धैर्य का है
तूफ़ान तो बहुत आयेंगे , गिरा जायेंगे ,
सवाल उनके वेग का नहीं...उसे झेलने के कार्य का है
सवाल आंसुओं का नहीं....उन्हें मोती बनाने का है
सवाल दवाई का नहीं.....रोग निवारण का है
आंसूं तो छलकेंगे ही , टप टप टप टप
सवाल उनके टपकने का नहीं....उन्हें जाम बनाने का है
सवाल मदिरा का नहीं....उसकी मादकता का है
सवाल ज़हर का नहीं...उसे कंठ से लगाने का
विष को कंठ में समां के , नीलकंठ कहलाना
सवाल मंथन का नहीं...उस से अमृत छलकाने का है
तो सवाल बहुत हैं, उत्तर भी,
पर गलत सवाल पूछे जाते हम
फिर उत्तर न मिले , तो कह देते" दोष किस्मत के जाल का है"
पर अंततः, सवाल उत्तर का नहीं....सही सवाल का है
Friday, October 14, 2011
I hate my gun~ Pardon Me!!!! Copyright ©
words are like bullets, and i have a loaded gun
of sarcasm, wit and a condescending pun
i know the damage gets done and healing needs time
even though the intent of shooting was never mine
but ...i shot, pulled the trigger without knowing
and now the wounds are showing
so what should i say, or do i say at all
i want to throw this weapon , so i never shoot at all
but it was given to me , its use never told
i took it for granted, thinking i would never shoot
bleed people and then clear the barrel off the soot
i never knew what damage it could do.
before i killed many, hurt many with my words
tearing the heart with these powerful swords
to have a gun is not good in it self
to be able to shoot is not the only talent
knowing, when to shoot and how to
is what i need to learn
to be able to, this secret, discern
but, not using it is like a talent wasted
having the the cake, but never tasted
so, use, i will
but, use, it with caution , is what i will do
otherwise put it away
so pardon me ,all wounded
pardon me for all I've done.
unknowingly , when i shot the gun
now i know , what damage these bullets can do
now i know , what destruction can result
now i know, how it bleeds
how these words, a victim, treats
so pardon me , i will take heed
won't shoot , without a desperate need
even though my intent is right
i am throwing this gun out of my sight
will bring it when need be
till then....pardon me
till then....pardon me
till then....pardon me !!!!
Wednesday, October 12, 2011
धूप छाँव ....बदलते दाँव ! Copyright ©
नर्म धूप खिली है किसी जगह, कहीं काली छाँव
है ऊंचे महेल किसी शहर, खंडहर किसी गाँव
पर क्या इस अठखेली से तिलमिलाना प्यारे
तेरी मौलिकता ही आएगी, जगमगा जायेगी....दबे पांव
चिलमिलाती धूप में बोया बीज, काटी फसल सेकी छाँव
प्रयास की गठरी को थामे, नकले यात्री नंगे पांव
जीवन की यात्रा में देखा सब कुछ, पाया सब कुछ,
पर हिम्मत की गागर छलकने न दी, चाहे लहूलुहान हुए घाव
पथिक चला चल, मृगत्रिष्णा की प्यास संभाले, भूल जा पड़ाव
भूल तू अपने भाग्य को , वोह तो जुए खेले है , बदले है हर दम दांव
तूने उम्मीद की डोरी न छोड़ी तो बस शिखर पे पहुंचेगा ही
पर पहुँच शिखर पे, उड़ मत जाना, रखना धरती पे ही अपने पांव
धूप छाँव का खेल , खेलेगा जीवन तुझसे हरदम
कभी तुरुप का पत्ता देगा ,कभी मुफलिस करेगा तेरा दांव
इसके नितदिन बदलते चरित्र पे न हो खुश, न हो दुखी
इसने तो ठानी ही है, घाव देने के बात पूछना " बंधू और बताओ"
तेरी धूप तेरे मन में है, तेरी छाँव तेरी हार नहीं
जीवन के बदलते दांव से नहीं है तेरी विश्वास की नाव बही
तेरा जीवन , तेरी रेखाएं , सब तेरे विवेक , तेरे विश्वास पे टिकी हैं
तुझसे ही धूप यहाँ पे , तुझसे ही छाँव सही
आँख मिचोली खेले यह जीवन मृत्यु के धूप छाँव
महल बना दे तेरे सपने, चाहे खँडहर करदे तेरा गाँव
तूने हरदम सत्य, ढाढस, प्रयास और उम्मीद का दामन पकड़ना है
चाहे कितने बदलें तेरे पत्ते, चाहे कितने बदले इसके दांव
Monday, October 10, 2011
क्या मतलब ! Copyright ©
जो लहरों की मौजों के कायल हों , उन्हें साहिल के सुकून से क्या मतलब
जो रौशन सूरज सा चमकते हों, उन्हें अँधेरे में दिए से क्या मतलब
शिखर पे पहुंचेंगे यह यकीन हैं जिनको, लहरों को चीरेंगे यकीन है जिनको
उन्हें थकान और हार से क्या मलतब
जो सपने साकार करते हों, उन्हें भाग्य से क्या मतलब
जो युगपुरुष का चरित्र रखते हों, उन्हें समय और काल से क्या मतलब
जो काँटों की शय्या पे सर रखते हों, उन्हें मखमली राहों से क्या मतलब
जो जीवन की मदिरा से प्याले भरते हों, उन्हें किसी और साकी से क्या मतलब
तूफानों से जो कश्ती निकाल लेते हों , उन्हें कल कल बहते पानी से क्या मतलब
जो सपनो के महल बना देते , उन्हें रेत के खंडहरों से क्या मतलब
जो आविष्कार करना जानते हों, उन्हों एकत्र करने से क्या मतलब
जिन्हें रचना आता हो, उन्हें स्याही से, कलम से क्या मतलब
जो माँ के चर्नामृत पीते हों, उन्हें मृत्यु से क्या मतलब
जो पितृ-साए में विलासी हों, उन्हें चिंता से क्या मतलब
जो मोहोब्बत का स्वाद चखते हों, उन्हें कड़वाहट से क्या मतलब
जो मृत्यु की भभूत लगाये घुमते हैं, उन्हें अलंकार से क्या मतलब
मतलब केवल हो मौलिकता से , प्रेम से, सत्य से
मतलब केवल हो धैर्य से, आत्म-क्षमता से, विश्वास से
मतलब हो केवल आज से, अभी से, वर्तमान से
जिसे इन सब के साथ न जीना आये, उन्हें जीने से क्या मतलब!!
Wednesday, October 5, 2011
बोल जमूरे ~ नाचेगा?
हर पुकार पे, हर इशारे पे
हर सुर, हर ताल पे
जमूरा नाचा, उछला और भागा
समय, किस्मत और काल के एक इशारे पे
कभी सोया कभी जागा
कभी उचल कूद, कभी चुप चाप
कभी राग़ छेड़ा, कभी आलाप
बोला हरदम..ये न रुकेगा
जब बोला मदारी...
बोल जमूरे ...नाचेगा?
कभी मदारी ने दिखाई लाठी
कभी चाबुक दिया जमा
कभी रेवड़ी दी खाने को कभी
केला दिया थमा
बस हर बार इन इशारों पे जमूरा
हरदम मान गया
न सोचा न समझा , सरे गम छुपा गया
किसी ने लगाम थामी उसकी तो
सब अधूरा हो गया पूरा
जब मदारी बोला
नाचेगा? बोल जमूरा...
जमूरा बन बन थक गया हूँ
कठपुतली बनके पक गया हूँ
अपना न कुछ कर पाया था तभी
मैं मदारी बनते बनते रह गया हूँ
किसी का चाबुक, किसी का खेल
किसी और की इच्छाओं की रेलम-पेल
मौलिकता और दुस्साहस का चोला
अब पहनूंगा मैं,
जमूरे का भेस बदल के
सारे धागे तोडूंगा मैं
न प्रलोभन ना हुकुम बजाना मुझको अब तो केवल एक ही खेल खेला जाएगा
मैं मदारी बन जाऊंगा और कह दूंगा दुनिया से
बोल जमूरे- नाचेगा?
बोल्जमूरे- नाचेगा?
बोल जमूरे- नाचेगा?
Monday, October 3, 2011
पतझड़ Copyright ©
हर बरस जब पीली पत्तियां
धरा को अपने रंगों से खुश्क बना देती
और ग्रीष्म की बेला के आने का संकेत
सूखी टहनियां जाता देतीं
तब तब एक अजीब सी घबराहट
मन में छा जाती थी
आने वाली बर्फ , जो आत्मा नीरस
करने की शक्ती से सराबोर है
अपने आने से पहले सूखी टहनियों से
संकेत देती थी
मन में एक कम्पन, पीठ में एक घबराहट
जमा देती थी
पर इस बरस मैंने इन पत्तियों , इन शाखों से
बात छेड़ी
सोचा इनका मन टटोलूं
जो घबराते घबराते अपने वस्त्र
उतार देती हैं
पहले तने से पुछा मैंने
कुछ देर में तू अपनी टहनियों को
नग्न होते देखेगा
तू घबराता नहीं
जब बर्फ की मृत्यु सी चादर ओढेगा
तू कंपकपाता नहीं?
तने ने बोला
शाखों को भी तो नए कपड़ों की
इच्छा होती है
उन्हें थोडा नहाने दो
अपने तन से पसीना
थोडा तो बहाने दो
यह उत्तर सुनके टहनी से मैं बोला
तुम तो नग्न हो रही हो
तन को अपने, खुश सर्दी
में डुबो रही हो
फिर कैसे न तुम शर्माती
कैसे न इस शीत लहर से डर जाती
वो बोली
पत्तियों के रंग जब बदलते हैं
बसंत में जब पुनः चमकते हैं
उन्हें संभालना मेरा काम है
जैसे पंछी अपने बच्चों को
उड़ता देख , प्रसन्न हो जाते हैं
वैसे पत्तियों के बड़े होने में
मेरे अंग प्रत्यंग मुस्कुराते हैं
उन्हें आहार प्रदान किया मैंने
फिर उन्हें खिलखिलाते देखा
अब बारी उनकी उड़ने की
तो मैंने उसमे संसार देखा
अब तक तो मेरी मुरझाई काया
को पुनः जागने का मौका मिल चुका था
पर फिर भी मैंने पत्तियों के
राज़ को जान ने की ठानी
एक गिरती पत्ती को हवा में ही
पकड़ के मैंने उसके खुश्क बदन को छुआ
वो मुस्कुराई
एक मरती जान मुस्कुरा कैसे सकती है
मैंने पुछा
वो बोली
जिसने अपने बचपन के सारे रंग चखे हों
अपने माँ-पिता के आँचल से अंग ढके हों
भई- बहनों को बड़े होते देखा हो
फिर नयी फसल को पकते देखा हो
अब वो एक नए सफ़र को है अग्रसर
शीत लहर के आने से पहले
जिसका झुका न हो सर
उसे किस बात का शोक
अब मैं गिर जाउंगी और जहाँ से जन्मी हूँ
उसी मिटटी में मिल जाउंगी
अगले बसंत में फिर जन्म लूंगी
और फिर जीवन का स्वाद चाखुंगी
यह सुनके मेरे मुरझाये चेहरे का
अंदाज़ ही बदल गया
मौत के दामन में ऐसा जीवट देखके
जीवन का अर्थ ही बदल गया
कैसे मौत को गले लगाती पत्तियाँ
मुस्कुरा रही थीं
अपने पीलेपन से भी धरती
जगमगा रही थीं
जीवन ऐसे हो मेरा भी
क़ि जियूं तो चमकू
मरुँ तो दमकूं
मुस्कराहट रहे हर पल
चाहे बसंत सा कल हो
या पतझड़ सा आज
या फिर हो ग्रीष्म सा आने वाला कल
धरा को अपने रंगों से खुश्क बना देती
और ग्रीष्म की बेला के आने का संकेत
सूखी टहनियां जाता देतीं
तब तब एक अजीब सी घबराहट
मन में छा जाती थी
आने वाली बर्फ , जो आत्मा नीरस
करने की शक्ती से सराबोर है
अपने आने से पहले सूखी टहनियों से
संकेत देती थी
मन में एक कम्पन, पीठ में एक घबराहट
जमा देती थी
पर इस बरस मैंने इन पत्तियों , इन शाखों से
बात छेड़ी
सोचा इनका मन टटोलूं
जो घबराते घबराते अपने वस्त्र
उतार देती हैं
पहले तने से पुछा मैंने
कुछ देर में तू अपनी टहनियों को
नग्न होते देखेगा
तू घबराता नहीं
जब बर्फ की मृत्यु सी चादर ओढेगा
तू कंपकपाता नहीं?
तने ने बोला
शाखों को भी तो नए कपड़ों की
इच्छा होती है
उन्हें थोडा नहाने दो
अपने तन से पसीना
थोडा तो बहाने दो
यह उत्तर सुनके टहनी से मैं बोला
तुम तो नग्न हो रही हो
तन को अपने, खुश सर्दी
में डुबो रही हो
फिर कैसे न तुम शर्माती
कैसे न इस शीत लहर से डर जाती
वो बोली
पत्तियों के रंग जब बदलते हैं
बसंत में जब पुनः चमकते हैं
उन्हें संभालना मेरा काम है
जैसे पंछी अपने बच्चों को
उड़ता देख , प्रसन्न हो जाते हैं
वैसे पत्तियों के बड़े होने में
मेरे अंग प्रत्यंग मुस्कुराते हैं
उन्हें आहार प्रदान किया मैंने
फिर उन्हें खिलखिलाते देखा
अब बारी उनकी उड़ने की
तो मैंने उसमे संसार देखा
अब तक तो मेरी मुरझाई काया
को पुनः जागने का मौका मिल चुका था
पर फिर भी मैंने पत्तियों के
राज़ को जान ने की ठानी
एक गिरती पत्ती को हवा में ही
पकड़ के मैंने उसके खुश्क बदन को छुआ
वो मुस्कुराई
एक मरती जान मुस्कुरा कैसे सकती है
मैंने पुछा
वो बोली
जिसने अपने बचपन के सारे रंग चखे हों
अपने माँ-पिता के आँचल से अंग ढके हों
भई- बहनों को बड़े होते देखा हो
फिर नयी फसल को पकते देखा हो
अब वो एक नए सफ़र को है अग्रसर
शीत लहर के आने से पहले
जिसका झुका न हो सर
उसे किस बात का शोक
अब मैं गिर जाउंगी और जहाँ से जन्मी हूँ
उसी मिटटी में मिल जाउंगी
अगले बसंत में फिर जन्म लूंगी
और फिर जीवन का स्वाद चाखुंगी
यह सुनके मेरे मुरझाये चेहरे का
अंदाज़ ही बदल गया
मौत के दामन में ऐसा जीवट देखके
जीवन का अर्थ ही बदल गया
कैसे मौत को गले लगाती पत्तियाँ
मुस्कुरा रही थीं
अपने पीलेपन से भी धरती
जगमगा रही थीं
जीवन ऐसे हो मेरा भी
क़ि जियूं तो चमकू
मरुँ तो दमकूं
मुस्कराहट रहे हर पल
चाहे बसंत सा कल हो
या पतझड़ सा आज
या फिर हो ग्रीष्म सा आने वाला कल
Friday, September 30, 2011
तेवर !! Copyright ©
जैसे भूचाल की चाल थर्राए धरा
जैसे उमड़ता सागर चिल्लाये ज़रा
जैसे तूफानों का वेग मचाये तांडव
वैसे मेरे अन्दर भी है एक स्पंदन
मेरा सुसज्जित मन, मेरा आभूषण, मेरा जेवर
हैं ऐसे मेरे तेवर
जैसे माँ करवाए स्तन पान शिशु को
जैसे दान दिया जाए घर आये भिक्षु को
जैसे प्रेमी सहलाए प्रेमिका के चक्षु को
जैसे मन हो मंदिर, और हो किसी साधू का सा घर
हैं ऐसे मेरे तेवर
जैसे सरहद पे खड़ा सिपाही अपने प्राण देने को हो आतुर
अपना जीवन दाव पे लगाये जैसे वो बहादुर
जैसे स्पर्धा भागते घोड़े के दौडें हैं खुर
जैसे मन से , तन से, काया से निकाले है कोई डर
हैं ऐसे मेरे तेवर
सिंह दहाड़े जब शिकार दबोचे हो वो
बगुले की सी स्थिरता जब एकाग्र संजोये हो वो
कौए के प्रयास जब एक एक कंकड़ चुनता हो वो
जैसे कछुए की धीमी चाल उठाये उसका स्तर
हैं ऐसे मेरे तेवर
जैसे एक सोच और धोती ने एक देश को आज़ाद किया
जैसे मोह को त्यागते ही सिद्धार्थ , बुद्ध हुआ
जैसे पीड़ा हरती एक बुधिया ने सद्भावना का प्रमाण दिया
जैसे एक यात्री का कभी न होता ख़त्म है सफ़र
हैं ऐसे मेरे तेवर
तो जो घबराए , शर्माए, डरके दुबक जाए
मात्र प्रेम , भिक्षा दान और अहिंसा से दूर जाए
वो इस तेवर को न समझेगा
वो इस जेवर को न समझेगा
मेरे तेवर समझोगे तो समझोगे
जीवन कितना बड़ा वरदान है
उसे एक तेवर से जीना ही
विधि का एकमात्र विधान है!
बादशाहों से तेवर
शेरों से तेवर
विजेताओं से तेवर
Monday, September 26, 2011
नशा ! Copyright ©
कोई जाए मयखाने में
कोई धुंए में उड़ा दे ज़िंदगी
नशा शराब का चखा किसी ने
किसी ने धुंए से तकदीर लिख दी
किसी को नशा हुआ ताक़त का
किसी ने भक्ती कर ली
सारे नशे चढ़े ऐसे जैसे
चढ़ती है जवानी
और ऐसे उतर गए भी जैसे
ख़त्म होती कहानी
मुझे तो ऐसे नशे की तलाश है
जिस से शरमा जाए जवानी
खाली बोतल ना हो जिसकी
कभी न उतरे जिसकी रवानी
ऐसे नशे में चूर रहके मैं
हरदम गिरा रहूँ..
हरदम साकी, पिलाये मुझे और मैं
उस नशे में मिला रहूँ
वह नशा क्या, जो ढलती शाम सा क्षितिज में मिल जाए
वह नशा क्या, जो साकी के जाते साथ ही घुल जाए
जो चढ़े सुरूर सा, फिर जकड़े सर को फिर उतर जाये
मादकता का पूर्ण रस जो ना पिला पाए
सोचा प्रेम में ऐसा नशा होगा,
वह लहराते बालों से आएगी, कमर की लचक पे
जाम भरके आएगी
और अपनी मदमस्त निगाहों से नशे में चूर कर जायेगी
वह नशा भी , जल्दी उतरा
और उतरते ही सर जकड़ा,
जैसे धीरे धीरे वह चढ़ा था, वह सुरूर कहाँ रुका था
फिर सोचा क़ि क्यूँ न ताक़त का नशा आजमाया जाए
जाम भरे जाएँ और उसे ठुमरी समझ के गाया जाए
जैसे मुकुट धरा गया सर पे, वह नशा भी उतर गया
इतनी कालिख देखि वहां पे कि सारा नशा बिखर गया
पर अब उस नशे की बूँद मेरी जिव्हा पर पड़ी है
ऐसा सुरूर , कि बस जैसे सामने अप्सरा कड़ी है
नशा सौ बोतल का इसमें , और सौ जन्मो का इसका साथ
फीके पद गए तख़्त और फीकी पद गयी हर बिसात
ऐसे सपने मन बुन रहा जैसे, चाँद साकी बनके धरती पे आया हो
और अपनी शीतलता के जाम साथ भर लाया हो
कभी न उतरने वाले इस नशे में मैं चूर हूँ
तुम सबके जाम ख़त्म हो जायेंगे..सुरूर धुल जाएगा
और मेरा साकी हरदम मुझे ऐसे ही बैठा के पिलाएगा
जाम-इ-ज़िंदगी , शाम-इ-ज़िंदगी, मेरा मदिरालय गायेगा
चढ़ाव तुम भी ज़िन्दगी का नशा
हो जाओ चूर मेरे संग
उतरेगा न सुरूर वादा रहा
जीलो मेरे संग!
शटल कॉक !! Copyright ©
कभी इस गली कभी उस डगर
कभी कभी तो नया शहर
कभी तारों से बातें
तो कभी भीगते छाते
कभी इसपे लिपट कभी उसपे भौंक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक
कभी भूके पेट तो कभी मदिरा की नदियाँ
कभी पकी फसल तो कभी कच्ची कलियाँ
कभी प्रेमिका की ज़ूलफें,
तो कभी माँ के पीठ की पीड़ा
कभी इस मुहल्ले तो कभी वो चौक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक
कभी भूक हड़ताल तो कभी सिंवैइयाँ
कभी रुदाली गान तो कभी बने गवैया
कभी शतरंज की बिसात
तो कभी मस्त साटोलिया
कभी वीराने मंज़र तो कभी नवाबी शौक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक
कभी ब्रह्म कमाल तो कभी काँटे
कभी कभी तो केवल सन्नाटे
कभी खून की होली कभी माथे की रोली
कभी जन गण मन
तो कभी क्रिकेट की हार का शोक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक
कभी इसनी मारा, कभी उसने पीटा
कभी इस ओर, कभी उस ओर घसीटा
मेरे दिल को भी कभी तो सस्ते मे बेचा
कभी दिल से दुआयें कभी दिया धोक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक
हर बार ऐसे इधर उधर फिरता रहूँगा
पर गगन में तो उड़ता रहूँगा
जब धरा पे आने का बहाना मिलेगा
किसी ना किसी से भिड़ता रहूँगा
'चिड़िया' तो हूँ मैं , गगन मे भी उड़ता
चलो तुम भी कर लो पूरे अपने शौक
क्यूंकी मैं हूँ शटल कॉक,
मैं हूँ शटल कॉक
मैं हूँ शटल कॉक!
Wednesday, September 21, 2011
वो ऐसे ! Copyright ©
वो ऐसे मुस्कुरा उठी मेरी मौत की खबर सुनके
जैसे तड़पते दिल को बुझा देता है पानी
मेरे जनाज़े का मंज़र उसके आने से जगमगा उठा
जैसे पूरी हो गयी हो अधूरी कहानी
मैने तो इश्क़ ही किया था, दिल ही दिया था
उसने जान देने का वादा ले लिया मुझसे, मेरी ही ज़ुबानी
साहिल जैसा सूखा था मन, रेत सा था प्यासा
और वो निकली सागर का सा खारा पानी
वो तूफान सा मेरे सपनो का महल ढहा गयी
और मैने उसे गले लगाया था समझ के मौजों की रवानी
बर्फ अपने मुक़द्दर समान , अपने ही पानी में मिल है जाती
मेरे तो हिस्से ना आया वो भी पानी
अब तो तस्वीर बनके लटका हूँ कहीं किसी पुरानी दीवारों पे
इश्क के समंदर में बह गयी मेरी जवानी
वो ऐसे मुझे निहारे जा रही है अब तो जैसे
मैं हूँ उसकी बुनी हुई कहानी
अंजाम चाहे मेरा , हुआ हो ऐसा , चाहे मौत ने गले लगाया मुझे
वो ऐसे ही मुस्कुराए और गुनगुनाए दास्तान-ए-इश्क़ अनुपम ध्यानी
Tuesday, September 20, 2011
हो जाए! Copyright ©
इंद्रधनुष के रंगो सा जीवन मेरा हो जाए
चाहे छोर मिले ना उसका , बस गीला सवेरा हो जाए
क्षण क्षण में जी लूँ मैं और पल पल को करूँ प्रणाम
हृदय मे मेरे बस ईश का बसेरा हो जाए
बिन बरखा ही मेरा मन मयूर नृत्य सा पगला हो जाए
सारी थकान, सारी चिंता, जीवन रस में खो जाए
भोर में मेरी कूची दौड़े नये रंगों की ओर
शाम होते ही मेरा जीवन , फिर कोरा काग़ज़ हो जाए
कल कल बहते पानी सा जीवन अमृत धारा हो जाए
हाथ बढ़ें देने को और नयी पौध मेरे हस्त बो जाए
फसल पकने का हो धैर्य और साहस हो उसे काटने का
दाना दाना खिल उठे, खुशी से मन मेरा रो आए
भौतिक सुख से ऊपर उठके , जीवन मेरा मोह रहित हो जाए
प्रेम निकले रग रग से मेरे, आँसू मन धो जायें
छलकते जाम हो हर ओर, मादकता जीवन में रहे हरदम
सारे पल समेट पाऊँ मैं, हृदय जीवन रस में खो जाए
फैले पंखों से उड़ान भरूं, जीवन अथाह आकाश हो जाए
बूँद बूँद से सागर बनता, वो बूँद प्रशांत हो जाए
हर कण का स्वाद चखूं मैं, हर स्वाद में अमृत हो
मेरे जीवन का हर पल, स्वयं में एक वृतांत हो जाए
हो जाए, हो जाए, बस ऐसा हो जाए!
Monday, September 19, 2011
फुसफुसाती पंखुड़ियां Copyright ©
बरसात ख़त्म होने आई है और भीगी धरा नहाई है
ऐसे मे हरी पत्तियाँ और फुसफुसाती पंखुड़ियाँ गाईं है
सारे राग जो पंखुड़ियों ने छुपा के रखे थे
आज मेघ मल्हार सा वो भी गुदगुदाइं है
क्या राज़ छुपा है इनके भीतर, फुसफुसते हुए यह क्या कहती हैं
क्या है इनके भीतर जो यह हरदम दबा के रहती हैं
प्रेम रस से ओताः प्रोत यह पंखुड़ियाँ तो कान्हा के चरनो की दासी हैं
राधा जैसी यह भी कनहिया के मन मे यह वसुधारा सी बहती हैं
मुझे इन पंखुड़ियों की फुसफुसाहट में वेदों सा स्वर मिल जाता है
इनके गुदगुदाने से जीवन का भार मिट जाता है
गुलाबी, पीले, नीली और सुर्ख लाल इनके रंगो का इंद्रधनुष ही अब तो
मेरे मन को भाता है
पंखुड़ियों, अपनी सादगी ज़रा मुझे भी दे दो , मैं भी युगों युगों से प्यासा हूँ
तर बतर होने को आतुर हूँ, मैं भी बेरंग ,नीरस, सा हो जाता हूँ
फुसफुसाओ मेरे कानों में और , आत्मा को वरदान दो
मेरे जीवन को भी ऐसी ही सादगी, ऐसे ही महक प्रदान करो
Tuesday, September 13, 2011
अंततः Copyright ©
निर्जीव आँखें भोर होते ही जगमगा उठीं
धुंधलेपन को चीरती निगाहें चिल्ला उठीं
मार्गदर्शक ना मिला पर हुईं यात्रा पर अग्रसर
अंततः जाके वो भी अंधकार में समा गयीं
भूमंडल में भ्रमण करती चीखें सत्य का प्रमाण हैं
कोलहाल मंडराता चहुँ ओर एक बहुत बड़ा सवाल है
ग्रीष्म की ठंडी शाखों सा मन कंपकपाता है
पर अंततः तो वो भी चिता मे स्वाहा हो जाता है
यदि अंततः सब राख ही हो जाना है
तो फिर यह जीवन तो उस अंतिम सत्य की ओर अग्रसर एक बहाना है
अंततः जब अनसुने अनकहे विचार माटी मे ही मिल जाने हैं
तो प्रासफुटित अंकुर तो आरंभ से ही मारा हुआ दाना है
अंततः क्या? अंततः क्यूँ? अंततः कैसे?
इनका उत्तर तो अंततः ही आना है..
Thursday, September 8, 2011
निर्भीक Copyright ©
बहुत दीनो से मन में ऐसे तूफ़ानों का उबाल था
जैसे पूरा जीवन एक बहुत बड़ा सवाल था
शब्द से नग्न था मन , चित्त भी बेहाल था
पर शून्य से राह ढूँढने का ही तो कमाल था
उठ खड़े हुए रोंगटे, रीड की हड्डी चिलमिला गयी
जब निगाहों के आगे बिखरे रेत के महल देखे
पर यह सपनो के ढाँचे ही तो मेरे हृदय का हाल था
तो उड़ती पतंग के मांजे सा किया मन मजबूत
कमर कस के तीखी निगाहों ने किया इरादे को प्रत्याभूत
मन ही मंदिर मन ही विषम परिस्थितियों से बचाता ढाल था
कुछ तो है इरादों में जो जान फूँक देते है हर गिरते पत्ते पर
कुछ तो है साँसों में जो प्राण फेर देते है सूखी शाखों पर
मेरी टूटी काया को ऐसा अमृत पान कराया इन्होने
कुछ तो है जो हर बार गिरके संभालने का साहस प्रदान करता हर
मुरझाए पत्ते कब हरा कवच फिर से पहें लेते, पता नही
सूखे शब्द भी ना जाने कैसे किसी को जीवन प्रदान कर देते, पता नही
पर जैसे ही यह अभ्युधयान हो जाता, जीवट से भरती गागर
जैसे ज्वार भाटा सा मन हो और हो मन अथाह सागर
तो हे सूखे पत्ते , हे सूखी डाल
इरादों को ना छोड़ कभी, ना कर विश्वास पे सवाल
साँस जो तेरे अंदर है बाकी तो भर ले उसे और बढ़ आगे
परिस्थितियाँ तो बहुत आएँगी , पर तू उभरेगा , हराएगा यह काल
बगुले सा एकाग्र धर और , काक सा हो तेरा प्रयास
मन में कर मंथन और निकाल उस से विश्वास
इरादों को फौलाद कर तू , चट्टान सा उन्हे खड़ा कर
फिर अपने सपनो के महल बना और सज़ा के रख अपने पास
अंधकार तो आने वाले उजाले का प्रतीक है
यदि यह विश्वास है तो तेरा निशाना एकदम सटीक है...
जीवट है तो तू सूखा पत्ता नही.. तू निर्भीक है
इन शब्दों की यह ही बात, यह ही इनकी सीख है!
Monday, August 22, 2011
धुम्र-पान डॅंडिका Copyright ©
इसके सुलगे छोर को देखो
कैसे धधकती हुई आग है
यह शांत सी ज़िंदगी में
कुछ करने की दौड़ भाग है
सुर्ख लाल अंगारे और जलता हुआ इसका बदन
यह तो एक ज्वालामुखी के मूह सा
एक खुला हुआ सुराख है
धुएँ में उड़ जायें फ़िकरें
यह तो एक निरंतर सत्य की राख है
बंद करो आँखें और खीँचो इस धुएँ को
तंबाकू नही यह तो मधुर सुगंध का राग है
अंगरों और धुएँ के बीच यह तो
भविश्य का घटाना, वर्तमान का भाग है
उंगलियों के बीच अठखेली खाती
यह ज़िंदगी के हमाम में
कुछ जिए लम्हों का झाग है
यह डॅंडिका तो ज्वलंत रहके
परित्याग का प्रमाण है
देखो इसके सुलगे छोर को
धधकती ज्वाला सी आग है
Tuesday, August 16, 2011
मौत से यारी कर तू पहले Copyright ©
तख्त-ओ-ताज मिट जाएँगे,खो जाएगी यह कायनात
सियासतें लुट जाएँगी , लूट जाएगी हर शतरंज की बिसात
पर याद रहे हरदम हरपाल,भूले ना यह सच कभी
रह जायगी उम्मीद, जैसे सूरज रौशन करता हर गहरी रात
काली रात के साए का डर निरंतर चला आ रहा
सब खो जाने का डर सदियों समय के साथ बहा
भयभीत निगाहें , काँपती बाँहें हर बार यह कह देती है
जो झेल गया समय, किस्मत और परिस्थिति की मार,
उसे ही इतिहास ने हरदम बादशाह कहा
जो तेज नही है, और ना है कुछ करने की कूबत
ना है ताक़त हर मार को सह जाने की , चाहे जिस भी सूरत
उस तख्त पे नज़र ना डाल, ना उस ताज का बना सेहरा
तू तो है एक निर्जीव, ज़ीवट रहित, एक बेजान मिट्टी की मूरत
तलवार की धार पे चलने की हिम्मत जो कर पाएगा
वो ही इतिहास में अंकित होने का दर्ज़ा ले जाएगा
चाहे समंदर की ऊँची लहरे तुझे डुबाने को हो तय्यार
उन्हे चीर कर ही तो सुनेहरी रेत, जगमगाता भविश्य पाएगा
रोक ना तू अपनी बाहों में दौड़ते लहू को
ना रोक दिल में उफनते तूफान को
मौत से पहले यारी कर तू
फिर कहीं जाके संभाल अपनी जान को
तो निकल अपने मखमली राज महल से, दे ज़िदगी को ललकार
पतझड़ और ग्रीष्म के बाद ही आती है हरदम बहार
कांटों से ना छिल गया कभी तो गुलाब कैसे चुन पाएगा
मौत भी तेरी ऐसे हो कि अरथी तेरी ले जायें कहार
Monday, August 15, 2011
आज़ाद भारत की फसल Copyright ©
किस ओर है देश अग्रसर , किस ओर है भारत की नज़र
किस मुक़ाम पे पहुँचना है हमको, क्या होगी हमारी डगर
आज़ादी की शाम ना होने देने की कसम हमने खाई थी
इस 'आज़ाद' भारत का कैसा होगा अब सफ़र
जो बो दिया है बीज, उसके फल तो हम काटेंगे
चौसठ साल के इतिहास का वर्तमान तो हम बाँटेंगे
यदि आज अच्छा नही है तो, यह बीज पुराना था
इसीलिए तो हमको, प्रेम का फूल ही बस उगाना था
आतंकी शाखें जो आज खिली हैं
भ्रष्टता की जो जागीर मिली है
वो कल की गैर- ज़िम्मेदारी है
यह बीते कल की कालिख, बीते कल की बीमारी है
इस कवि , इस अभिव्यक्ता ने आज यह तस्वीर इसलिए उतारी है
क्यूंकी कल के भविष्य का बोझ, उसके हृदय मे भारी है
संकल्प तो हमने हर बरस इस दिन लिया था,
पर अगले क्षण ही भारत मा को नीलाम किया था
यदि कल भारत का परचम हमे विश्व भर में लहराना है
तो उस कपड़े का तार तार हमे आज से बनाना है
जो कल हमको सोने की चिड़िया फिर स्वर्ण बनानी है
हमको आज से हर उसके पिंजरे को तोड़ जाना है
पौधा उगाना है कल का, उस पौध को यदि लहलहाती फसल बनाना है
तो इस आज़ादी की हो रही शाम पर
सुनेहरा सूरज चमकाना है
तिरंगे के रंगो पे नया रंग चढ़ाना है
सोए भारत को इस 15 अगस्त हमे ऐसे आज जगाना है
ज़य हिंद!!!
Wednesday, August 10, 2011
Parenthood ! Copyright ©
For new, old and future parents !
DO NOT TAKE PARENTHOOD LIGHTLY.....THE FLOWERS OF THE FUTURE MAY NOT LIVE TO SEE A BRIGHT TOMORROW
responsibility came to me
in the form of a flower pot
beautiful purple flowers
emanating freedom like a new born
leaves bright green, confident and reborn
she had said
i give you this to take care
i have its cousin, the other pair
nurture it with the love u got
like baby this is , our flower pot
i was not ready for this parenthood
but i thought she wants to see
how good of a dad i could be
how much love i could give it wholeheartedly
because motherhood, to her, came naturally
i said to myself that i might fail
but i will give it my best shot
to that crimson red flower pot
i placed it in the balcony
to nurture it with the sunlight of love
it would grow happy and healthy
with blessings from the sky above
and then.......
the first flower shed
fallen to the ground
i had failed as i parent, i thought
i am sorry my poor baby, my flower pot
but i wanted it to live and to thrive
to emanate that beautiful vibe, to survive
so i replenished it with water
and cleaned its body
gave it some more sun
looked at it for hours
and thought about its cousin
am i being as good as she wanted me to be
how is its cousin fairing, better than me?
i was scared that when she would come
and see the withered leaves
she would sadden and judge my parenthood
oh my heart grieves
it was dying, my baby
sick and withered and wilted
i had failed
i woke up one night to see
how i could revive
would it , my carelessness, survive
like a father i was sad
but i had to give it hope, like a dad
so i gave it love
and then it smiled
it is still a little sick
but i will get it to live
i will teach it how to give
when to
when to not
oh my love, my flower pot
last night i wondered about its cousin
how was it being raised
had it been beaming with radiance
oh i would be so amazed
so i called the mother to check on it
to ask if our little one was awake
was it smiling
or taking a break
and....
i was told that it was dead
the day it was born
it had a short sojourn
its death had not been mourned
i was questioning my parenthood
all this while
feeling bad that i had failed
when the other ship had never sailed
i wish the cousin had survived
and she would have loved it
but i know she was not ready for this
but neither was I
her love had made me do what
i was so afraid of
i guess this is how you learn
with certain losses , you earn
the good thing is
that one of the kids has survived
and our love has thrived
so we will nurture this little one
and share its growing fun
will love it like parents should
we will now definitely
mature in parenthood.!
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